नई दिल्ली. बदलते मौसम में बकरी और भेड़ में कई तरह की बीमारियों का खतरा बना रहता है. इसमें पीपीआर रोग बहुत ही खतरनाक माना जाता है. पीपीआर रोग का ज्यादा असर बकरियों पर दिखता है. बकरी पालन में इसके चलते मुनाफा कम हो जाता है. इस रोग बचाव के लिए टीकाकरण कराया जाता है. एक्सपर्ट कहते हैं कि तीन माह पर बकरी के बच्चे को टीका लगवाना चाहिए. इससे तीन साल के लिए बकरी इस रोग से महफूज हो जाती है. फिर तीन साल पर फिर टीका लगवा देना चाहिए. अच्छी सेहत का पशु पशुपालकों को अच्छी कमाई देता है. अगर पशु बीमार हो जाए तो पशुपालन में मुनाफे की दर कम हो जाती है.
बकरी एक्सपर्ट का कहना है कि इस बीमारी को बकरी प्लेग, काटा, बकरी का प्रतिश्यायी ज्वर जैसे अन्य नाम से भी जाना जाता है. यह छोटे जुगाली करने वाले मवेशियों बकरियों और भेड़ों की अत्यंत तीव्र, वायरस जनित संक्रामक बीमारी हैं, जो की मोरबिलि वायरस की वजह से फैलती है. इस बीमारी में बुखार, परगलित मुखपाक, शरीर के अंदर बीमारियां, निमोनिया, आखों और नाकों से पीप युक्त श्राव जैसे लक्षण पाए जाते हैं. वहीं अंत में पशु मर जाता हैं. इसलिए इस बीमारी की देखरेख बहुत जरूरी है.
ये चारा नहीं दें: इस रोग से पशु मर भी सकता है. इसलिए इसे बकरी प्लेग के नाम से भी जानते हैं. इस रोग में अधिक मुत्यु दर के कारण ये बीमारी आर्थिक रूप से बहुत नुकसानदायक है. ये बीमारी संक्रमित पशुओं के संपर्क में आने से और संक्रमित खाद्य पदार्थों के सेवन से फैलती है. दूषित चारा, पानी, दूध, फर्श, श्रमिकों के कपड़ों और हाथों से ये बीमारी फौरन फैलती है. इस रोग के विषाणु संक्रमित पशुओं के मलत्याग और समस्त स्रावों में पाए जाते हैं और रोग के प्रसार का कारण बनते हैं.
बकरियों में ज्यादा होता है ये रोग: इस बीमारी का इंक्यूबेशन काल 2-6 दिनों का होता है. भेड़ों की अपेछा बकरियों में यह रोग ज्यादा पाया जाता है. इस रोग से ग्रसित पशु में रोग के प्रमुख लक्षण जो उत्पन्न होते हैं वह हैं तीव्र बुखार का आना (104-105 डिग्री F), अत्याधिक नास श्राव होना, पतले दस्त का होना, मुंह के अन्दर की श्लेष्मा, जीभ, डेंटल पैड और होठों पर घाव का पाया जाना, साथ ही शरीर में निर्जलीकरण का होना.
उपचार का तरीका: हालांकि यह रोग वायरस जनित है. इसलिए इस रोग की कोई विशेष चिकित्सा उपलब्ध नहीं है. दस्त और सांस लेने की समस्या का लक्षणों के आधार पर उपचार करते हैं. डिहाइड्रेशन को दूर करने के लिए शरीर में तरल (फ्लूइड) चढ़ाते हैं. रोगी पशु को एंबीबायोटिक दवाएं देनी चाहिए ताकि द्वितीय जीवाणु जनित बीमारियों को रोका जा सके. इस रोग के बचाव के लिए पशुओं का समय पर टीकाकरण करवाना चाहिए. टीकाकरण पहली बार 3 माह की अवस्था में किया जाता हैं जो की 3 साल के लिए प्रभावी होता है. बीमारी के काल में ऐसे पशुओं को दूसरे पशुओं से दूर रखना चाहिए.