नई दिल्ली. भारतीय ग्रामीण इलाकों में सही पशु चिकित्सा सुविधाओं व कार्यक्रमों के अभाव में, बकरियों विशेषकर उनके बच्चों में असामान्य मृत्युदर दिखाई देती है. बकरी समूहों में ज्यादातर में मृत्यु दर, संक्रामक, परजीवी या पोषण सम्बन्धित रोगों के कारण होती है. संक्रामक रोग आमतौर पर जीवाणु, विषाणु माइकोप्लाज्मा, प्रोटोजोआ और फंफूदी जनित होते हैं लेकिन इनमें से कई रोग संसर्गज नहीं होते. कुछ रोगों का कारण एक बीच का परपोषी होता है. इसमें हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि ये एक ऐसा कीड़ा होता है जो दूसरे कीड़ों को आसरा देते है और बीमारी गंभीर हो जाती है.
भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (IVRI) की मानें तो कई बार बीमारी के कारण ये स्वस्थ पशु शरीर में ही रहता है, लेकिन पोषण या अन्य चीजों का ख्याल न रखने की वजह से ये रोग जनक बन जाता है. संक्रामक रोग के कारक विषाणु, जीवाणु, आखिरी में व बाहरी कीड़ों, प्रोटोजोआ, माइकोप्लाज्मा मुख्य रूप से होते हैं.
वायरस से होन वाली बीमारी कौन सी है
वैसे तो पशुओं को कई बीमारी होती है लेकिन पीपीआर (बकरी प्लेग) यह बेहद ही संक्रामक व खतरनाक वायरस से होने वाली बीमारी है.
खासकर नवजात शिशुओं में इस रोग का प्रकोप व मृत्यु दर काफी ज्यादा है. इस रोग से करीब 80-90 प्रतिशत बकरियों ग्रसित हो जाती है.
इस बीमारी के कारण 40-70 प्रतिशत तक बकरियों की भी मौत हो जाती है.
इस बीमारी की मुख्य पहचान के रूप में तेज बुखार, दस्त, आँख व नाक से पानी आना, न्यूमोनिया व मुंह में छाले पड़ जाना है.
इस रोग का उपचार सफल नहीं है फिर भी जीवाणुओं के खिलाफ दिया गया उपचार दूसरे चक्र के संक्रमण को रोकते हुए कुछ पशुओं की रक्षा कर सकता है.
बाजार से खरीदकर लाई गई बकरियों को टीकाकरण के बाद ही अपने स्वस्थ रेबड़ में मिलाना चाहिए.
4 माह की आयु से ऊपर के सभी बच्चों, बकरियों में पीपीआर रोग का टीकाकरण ही रोग की रोकथाम का एक मात्र व अन्तिम उपाय है.
निष्कर्ष
बकरियों को हर हाल में बीमारियों से बचाना चाहिए. तभी बकरी पालन में फायदा मिलेगा. नहीं तो बकरी पालन के काम में नुकसान उठाना पड़ सकता है.