नई दिल्ली. बारिश के दिनों में जहां पशुओं को गर्मी से निजात मिलती है तो वहीं उन्हें बीमारियां भी घेर लेती हैं. बीमारियों के कारण पशुओं की मौत भी हो जाती है. इससे एक झटके में पशुपालकों कों लाखों रुपये का नुकसान हो जाता है. वहीं इस मॉनसून पशुओं के लिए कई खतरा है. पशुओं को लंगड़ा बुखार यानि ब्लैक क्वार्टर संक्रामक बीमारी हो सकती है. निविदा संस्था के मुताबिक देश के 148 जिलों में इस बीमारी का खतरा है. एक्सपर्ट का कहना है कि इस बीमारी से बचने के लिए जरूरी एहतियात कर लें ताकि पशुओं को बीमारी से बचाया जा सके. आइए जानते हैं इस बीमारी लक्षण इलाज और खतरे के बारे में.
बता दें कि ब्लैक क्वार्टर यानी लंगड़ा बुखार की बीमारी जुलाई के महीने में देश के 50 शहरों में पशुओं को अपना शिकार बना सकती है. इस महीने सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला राज्य झारखंड है. जहां 15 जिलों में यह बीमारी पशुओं में फैल सकती है. वहीं असम के 11 जिले प्रभावित हो सकते हैं. जबकि कर्नाटक के आठ जिलों में यह बुखार पशुओं को बीमार कर सकता है. अगस्त महीने की बात की जाए तो इस महीने में ये बीमारी बहुत ज्यादा गंभीर रूप लेती नजर आ रही है. झारखंड के आठ जिले में यह बीमारी पशुओं को अपना शिकार बनाएगी. जबकि कर्नाटक में 15 जिलों में यह बीमारी फैल सकती है. मध्य प्रदेश का 10 जिले और वेस्ट बंगाल का भी इतना ही जिले प्रभावित हो सकते हैं. जबकि असम में भी 13 जिलों में इस बीमारी का असर रहेगा.
क्या दिखाई देते हैं लक्षण
बताते चलें कि लंगड़ा या ब्लैक क्वार्टर बहेद संक्रामक बेहद खतरनाक बीमारी है, जो बारिश में मिट्टी के अंदर पैदा होता है. इस बीमारी का खतरा उन फार्म में ज्यादा बढ़ जाता है, जिनका फर्श मिट्टी का है. गीली मिट्टी में लंगड़ा बुखार के जीवणु-बीजाणु पैदा हो जाते हैं और सालों तक मिट्टी में रहता है और लंबे समय तक पशुओं को बीमार करता रहता है. इस बीमारी में फोकल गैंग्रीनस, वातस्फीति मायोसिटिस, भूख में कमी, उच्च मृत्यु दर की संभावना सबसे ज्यादा रहती है. वहीं जांघ के ऊपर क्रेपिटस सूजन, चीरा लगाने पर गहरे भूरे रंग का तरल पदार्थ निकलता है. वहीं बीमारी में बुखार 106-108 फार्रेहाइट तक हो सकता है. पैर को प्रभावित करके लंगड़ापन ला देता है. कूल्हे के ऊपर क्रेपिटिंग सूजन, पीठ पर क्रेपिटस सूजन, कंधे पर रेंगने वाली सूजन आदि होती है.
कैसे बीमारी से पशुओं को बचाएं
बारिश के मौसम से पहले इस रोग का टीका लगवा लेना चाहिए. यह टीका पशु को छह माह की उम्र पर भी लगाया जाता है. रोगग्रस्त पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए. भेड़ों में ऊन कतरने से तीन माह पहले टीकाकरण करवा लेना चाहिये. क्योंकि ऊन कतरने के समय घाव होने पर जीवाणु घाव से शरीर में प्रवेश कर जाता है. जिससे रोग की संभावना बढ जाती है. पशुओं में सूजन को चीरा मारकर खोल देना चाहिये. जिससे जीवाणु हवा के सम्पर्क में आने पर अप्रभावित हो जाता है. उपचार की बात की जाए तो पेनिसिलीन, सल्फोनामाइड, टेट्रासाइक्लीन ग्रुप के एंटिबा योटिक्स का सपोर्टिव दवाओं को देकर बीमारी की तीव्रता को कम किया जा सकता है. वहीं सूजन वाले भाग में चीरा लगाकर 2 प्रतिशत हाइड्रोजन पेरोक्साइड तथा पोटाशियम परमैंगनेट से ड्रेसिंग किया जाना फायदेमंद है.
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