नई दिल्ली. ब्रॉयलर बकरी पालन में बकरी के बच्चों को थोड़ी मात्रा में गाढ़ा भोजन दिया जाता है और मात्रा सेवन के आधार पर धीरे-धीरे बढ़ाई जाती है. मछली के तेल के साथ मिश्रित लिवर टॉनिक जैसे अतिरिक्त पूरक भी सप्ताह में दो बार दिए जाते हैं. वहीं साफ पानी बहुत जरूरी है और शेड में चौबीसों घंटे उपलब्ध कराया जाना चाहिए. छोटे बच्चों को उनके जरूरी विकास के लिए के लिए एक महीने तक (दिन में दो या तीन बार) मां का दूध भी दिया जाता है. वहीं बकरी का चारा बाजार में उपलब्ध होगा या किसान स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्री जैसे डी-ऑइल ग्राउंड नट केक, हॉर्स चना, गेहूं या मक्का, चावल या गेहूं की भूसी, आदि का उपयोग करके अपना स्वयं का फ़ीड मिश्रण भी तैयार कर सकते हैं.
एक्सपर्ट कहते हैं कि बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए ब्रॉयलर पालने के 45वें दिन पहली बार कृमि मुक्ति करानी चाहिए. बच्चों के बिकने तक कृमि मुक्ति की दवा हर महीने दोहराई जानी चाहिए. केरल के कोझिकोड जिले के पेरुवन्नामुझी में कावेरी कुदुम्बश्री और निधि जैसी तमाम महिला स्वयं सहायता समूह और कई अन्य व्यक्तिगत किसान पिछले पांच वर्षों से इस विधि से बकरियों का पालन कर रहे हैं.
जिनके पास कम जमीन है उनके लिए फायदेमंद
समूह के सदस्यों का कहना है कि ये विधि उन लोगों के लिए ज्यादा फायदेमंद है. जिनके पास जानवरों को चराने के लिए पर्याप्त भूमि नहीं है. इन भूमिहीन महिलाओं के लिए, यह एक लाभदायक प्रस्ताव है. यह तकनीक उन्हें बहुत कम समय में अधिक संख्या में बकरियों को पालने में मदद करती है. कम लागत, अधिक लाभ, पशु प्रबंधन में आसानी और बकरी के मांस की अच्छी मांग ऐसे कई अनुकूल कारक हैं जो कृषक समुदाय को ब्रॉयलर बकरी पालन को अधिक उत्साह से अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं.
कम आता है खर्च
ब्रॉयलर तकनीक के तहत पाले गए बच्चों का वजन 120-140 दिनों में लगभग 25-33 किलोग्राम बढ़ जाता है. जबकि हरी आहार की पारंपरिक प्रणाली में, बकरियों का वजन अधिकतम 10 किलो ही होता है, वह भी 6 महीने में. इस पद्धति के तहत एक बच्चे को खाना खिलाने का खर्च लगभग 1200 रुपये का खर्च आता है. 5050 से 7050 (जीवित वजन के आधार पर 250 रुपये प्रति किलोग्राम) आसानी से प्राप्त किया जा सकता है.
विदेशी भी जानना चाह रहे तकनीक
केवीके पेरुवन्नमुझी के कार्यक्रम समन्वयक डॉ. टी अरुमुघनाथन ने बताया कि अब यह केंद्र का एक प्रमुख कार्यक्रम बन गया है. इस तकनीक की सफलता केवल केरल तक ही सीमित नहीं है. कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और गुजरात जैसे अन्य राज्यों के किसान इन स्वयं सहायता समूहों का दौरा करके उनकी सफलता का सूत्र देख रहे हैं. हाल ही में हमें विदेशों से भी पूछताछ प्राप्त हुई.
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