नई दिल्ली. आमतौर पर चरवाहों का काम सिर्फ यही होता है कि वो अपने मवेशियों के चारे के लिए एक जगह से दूसरी जगह फिरते रहते हैं. हालांकि एक वक्त ऐसा भी गुजरा है जब सूखा दुनिया भर के चरवाहों की जिंदगी पर असर डाल रहा था. जिस साल बारिश नहीं होती और चरागाह सूख जाते थे. अगर उस साल मवेशियों को किसी हरे-भरे इलाके में न ले जाया जाए तो उनके सामने भुखमरी का संकट पैदा हो जाता था. उस वक्त चरवाहे अपने जिंदगी गुजारने के लिए युद्ध तक लड़ते थे. एक-दूसरे के कबीले के साथ युद्ध करके उनके जानवरों पर कब्जा कर लेते थे. ये बात तब की है कि जब औपनिवेशिक शासन की स्थापना के बाद तो मासाइयों को एक निश्चित इलाके में कैद कर दिया गया था.
उनके लिए एक इलाका आरक्षित कर दिया गया और चरागाहों की खोज में यहां-वहां भटकने पर रोक लगा दी गई. उन्हें बेहतरीन चरागाहों से महरूम कर दिया गया और एक ऐसी अर्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर मजबूर कर दिया गया. जहा. सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी. क्योंकि ये लोग संकट के समय भी अपने जानवरों को लेकर ऐसी जगह नहीं जा सकते थे. जहां उन्हें अच्छे चरागाह मिल सकते थे. इसलिए सूखे के सालों में मासाइयों के बहुत सारे मवेशी भूख और बीमारियों की वजह से मारे जाते थे. 1930 की एक जांच से पता चला कि कीनिया में मासाइयों के पास 7,20,000 मवेशी, 8,20,000 भेड़ और 1,71,000 गधे थे. 1933 और 1934 में पड़े केवल दो साल के सूखे के बाद इनमें से आधे से ज्यादा जानवर मर चुके थे.
चरवाहों को दो ग्रुप में बांट दिया गया
जैसे-जैसे चरने की जगह सिकुड़ती गई, सूखे के दुष्परिणाम भयानक रूप लेते चले गए. बार-बार आने वाले बुरे सालों की वजह से चरवाहों के जानवरों की संख्या में लगातार गिरावट आती गई. औपनिवेशिक काल में अफ्रीका के बाकी स्थानों की तरह मासाईलैंड में भी आए बदलावों से सारे चरवाहों पर एक जैसा असर नहीं पड़ा. उपनिवेश बनने से पहले मासाई समाज दो सामाजिक श्रेणियों में बँटा हुआ था वरिष्ठ जन (ऐल्डर्स) और योद्धा (वॉरियर्स)। वरिष्ठ जन शासन चलाते थे. समुदाय से जुड़े मामलों पर विचार-विमर्श करने और अहम फैसले लेने के लिए वे समय-समय पर सभा करते थे. योद्धाओं में ज्यादातर नौजवान होते थे जिन्हें मुख्य रूप से लड़ाई लड़ने और कबीले की हिफाजत करने के लिए तैयार किया जाता था.
दूसरों के जानवर छीन लेना बड़ा काम था
वे समुदाय की रक्षा करते थे और दूसरे कबीलों के मवेशी छीन कर लाते थे. जहां जानवर ही संपत्ति हो वहाँ हमला करके दूसरों के जानवर छीन लेना एक महत्त्वपूर्ण काम होता था. अलग-अलग चरवाहा समुदायों की ताकत इन्हीं हमलों से तय होती थी. युवाओं को योद्धा वर्ग का हिस्सा तभी माना जाता था जब वे दूसरे समूह के मवेशियों को छीन कर और युद्ध में बहादुरी का प्रदर्शन करके अपनी मर्दानगी साबित कर देते थे। फिर भी वे वरिष्ठ जनों के नीचे रह कर ही काम करते थे. मासाइयों के मामलों की देखभाल करने के लिए अंग्रेज सरकार ने कई ऐसे फ़ैसले लिए जिनसे आने वाले सालों में बहुत गहरे असर पड़े. उन्होंने कई मासाई उपसमूहों के मुखिया तय कर दिए और अपने-अपने कबीले के सारे मामलों की जिम्मेदारी उन्हें ही सौंप दी. इसके बाद उन्होंने हमलों और लड़ाइयों पर पाबंदी लगा दी. इस तरह वरिष्ठ जनों और योद्धाओं. दोनों की परंपरागत सत्ता बहुत कमजोर हो गई.
फिर मजदूरी करने को मजबूर हो गए चरवाहे
वहीं जैसे-जैसे समय बीता, औपनिवेशिक सरकार द्वारा नियुक्त किए गए. मुखिया माल इकट्ठा करने लगे. उनके पास नियमित आमदनी थी जिससे वे जानवर, साजो-सामान और जमीन खरीद सकते थे. वे अपने गरीब पड़ोसियों को लगान चुकाने के लिए कर्ज पर पैसा देते थे. उनमें से ज्यादातर बाद में शहरों में जाकर बस गए और व्यापार करने लगे. उनके बीवी-बच्चे गांव में ही रहकर जानवरों की देखभाल करते थे। उन्हें चरवाही और गैर-चरवाही, दोनों तरह की आमदनी होती थी. अगर उनके जानवर किसी वजह से घट जाएं तो वे और जानवर खरीद सकते थे. जो चरवाहे सिर्फ अपने जानवरों के सहारे जिंदगी बसर करते थे उनकी हालत अलग थी. उनके पास बुरे वक्त का सामना करने के लिए अकसर साधन नहीं होते थे। युद्ध और अकाल के दौरान उनका सब कुछ खत्म हो जाता था. तब उन्हें काम की तलाश में आसपास के शहरों की शरण लेनी पड़ती थी. कोई कच्चा कोयला जलाने का काम करने लगता था तो कोई कुछ और करता था. जिनकी तकदीर ज्यादा अच्छी थी उन्हें सड़क या भवन निर्माण कार्यों में काम मिल जाता था.
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