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Dieses: गाय-भैंस और इन जानवरों को हो सकती है ये बीमारी, उत्पादन होता है प्रभावित, पढ़ें लक्षण और बचाव

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प्रतीकात्मक तस्वीर.

नई दिल्ली. ट्रिपेनोसोमियोसिस पालतू एवं जंगली पशुओं को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोगों में से एक है. इस रोग के कारण पशुओं की उत्पादक क्षमता में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से अत्याधिक कमी हो जाती है. जिसका असर पशुपालकों पर पड़ता है. क्योंकि पशुपालन तो ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए ​ही किया जाता है. अगर पशुओं से उत्पादन ही कम हो जाएगा तो फिर पशुपालकों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है. एक्सपर्ट कहते हैं कि ट्रिपेनोसोमियोसिस बीमारी सिर्फ गाय और भैंस को ही नहीं निशाना बनाती है. बल्कि इस बीमारी से घोड़े समेत तमाम जंगली जानवर भी चपेट में आ जाते हैं.

ऐसे में पशुपालकों को ये पता होना चाहिए कि पशुओं में ट्रिपेनोसोमियोसिस (सर) रोग लक्षण एवं बचाव क्या हैं. अगर एक बार लक्षण के बारे में पता चल गया, बीमार पशुओं की पहचान करना उन्हें आ गया तो फिर इसका इलाज किया जा सकता है पशुपालक खुद को नुकसान से भी बचा सकता है. बताते चलें कि इस बीमारी का टीका नहीं बना है लेकिन इतना जरूर है कि दवाएं मौजूद हैं, जिसके जरिए इसका इलाज किया जाता है. ज्यादा आर्थिक नुकसान को देखते हुए पशुपालकों को इस रोग के रोकथाम के बारे में समुचित जानकारी रखना महत्वपूर्ण हो जाता है. इस बीमारी से मई माह देश के 74 जिलों में फैलने की आशंका है. निविदा संस्था के मुताबिक असम के एक जिले, बिहार के तीन जिले, झारखंड के 25 जिले, राजस्थान का एक जिला उत्तर प्रदेश के 40 और वेस्ट बंगाल के दो जिले प्रभावित हो सकते हैं.

रोग होने का कारण क्या है
यह रक्त परजीवी जनित रोग, ट्रिपेनोसोमाइवेन्साई नामक प्रोटोजोआ के पशु के रक्त-प्लाज्मा में उपस्थिति के कारण होता है. इसे ‘सर्च’ रोग के नाम से भी जाना जाता है.

यह परजीवी बहुत सारे पशुओं जैसे-घोड़ा, कुत्ता, ऊँट, भैंस, गाय, हाथी, सुअर, बिल्लीचूहा, खरगोश, बाघ, हाथी, हिरन, सियार, चितल, लोमड़ी आदि को प्रभावित करता है. लेकिन ऊँट, घोड़ा एवं कुत्ता में सर्रा बहुत गंभीर रोग के रूप में प्रकट होता है. भैंस में इस रोग का प्रकोप गाय की अपेक्षा अधिक होता हैं.

यह रोग बरसात के समय तथा बरसात के 2-3 महीनों में अधिक देखने को मिलता है क्योंकि इस मौसम में रोग फैलाने वाले उत्तरदायी मक्खियो जैसे-टेबेनस (मुख्य रूप से) आदि की संख्या अत्याधिक बढ़ जाती है.

इस रोग का फैलाव रोग-ग्रस्त पशु से स्वस्थ पशुमें खून चूसने या काटने वाले मक्खी जैसे-टेबेनस (मुख्यतः), स्टोमोक्सिस, लाइपरोसिया आदि द्वारा यांत्रिक रूप से संचरण होता है. बिहार में टेबेनस मक्खी को पशुपालक ‘डांस’ मक्खी के नाम से ज्यादा जानते है.

रोग के लक्षण क्या-क्या हैं
इस रोग का गाय-भैंस में निम्नलिखित मुख्य लक्षण दिखाई पड़ता है. प्रभावित पशु में रुक-रुक कर बुखार आना, बार-बार पेशाब करना, खून की कमी, पशु द्वारा गोल चक्कर लगाना, सिर को दीवार या किसी कड़ी वस्तु में टकराना आदि है.

खाना-पीना कम कर देना, आँख एवं नाक से पानी चलने लगना, मुँह से भी लार गिरना.

प्रभावित पशुका धीरे-धीरे अत्याधिक दुर्बल एवं कमजोर होते चला जाना.

सकमित दुधारू पशु का दुध उत्पादन बहुत ज्यादा कम हो जाना.

प्रभावित पशु का प्रजनन क्षमता में कमी एवं गभित पशुओं में गर्भपात होने की पूरी संभावना.

घोडा में रुक-रुक कर बुखार आना, दुर्बलता, पैर एवं शरीर के निचले हिस्सों में जलीय त्वचा शोथ (इडीमा), पित्ती के जैसा फलक (अर्टिकेरियल प्लैक) गर्दन एवं शरीर के पार्श्व क्षेत्रों आदि लक्षण प्रकट होता है.

कुत्ता में सर्रा रोग से संक्रमित कुत्ता के कंठनली में जलीय त्वचा शोथ (इडीमा) हो जाता है जिसके कारण संक्रमित कुत्ता का आवाज रैबीज रोग के समान हो जाता है. इसके अलावे कॉर्नियल ओपेसिटी भी होता है जिसमें आँख ब्लू रंग का हो जाता है.

रोग की पहचान लक्षणों के आधार पर की जाती है. रोग-ग्रस्त पशु के खून की जांचकर ट्रिपेनोसोमाइवेन्साई प्रोटोजोआ को पता लगाया जा सकता है.

बीमारी के रोकथाम का तरीका
सर्रारोगसे बचाव के लिए कोई टीका अभी उपलब्ध नही हैं. इसलिए इस रोग से बचाव के लिए क्वानापाइरामीनक्लोराइड दवा या आइसोमेटामिडियमक्लोराइड का प्रयोग कर किया जा सकता है. जिसके प्रयोग से पशु को 4 महीनो तक सर्रा रोग नहीं हो पाता है.

सर्रा रोग फैलाने वाले मक्खियों जैसे-टेबेनस आदि की संख्या को नियंन्नण करके भी इस रोग के संक्रमण को कम किया जा सकता है. मक्खियों की संख्या को नियंन्त्रण कीटनाशक का छिड़काव समयानुसार पशु आवास के अन्दर एवं आस-पास करके रहना चाहिए.

ट्रिपेनोसोमियोसिस (सरी) रोग के उपचार हेतु क्वानापाइरामीनसल्फेट तथा क्वानापाइरामीनक्लोराइड औषधि पशु चिकित्सक की देख-रेख में देना चाहिए.

इस रोग के प्रभावित पशु के शरीर में अत्याधिक मात्रा में ग्लुकोज की कमी हो जाती है जिसकी पूर्ति हेतु डेक्सट्रोज सैलाइन का प्रयोग पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार करना फायदेमंद होता है.

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