नई दिल्ली. देश में कई नस्ल की भैंस होती हैं. आपने मुर्राह, जाफरावादी, निली रावी नस्ल की भैंस के बारे में खूब सुना होगा लेकिन कम लोग ही जानते हैं कि बन्नी नस्ल की भी कोई भैंस भारत में पाई जाती है. नस्ल पंजीकरण समिति, आईसीएआर, नई दिल्ली द्वारा बन्नी भैंस नस्ल को भारत की 11वीं भैंस नस्ल के रूप में मान्यता दी गई थी. इस नस्ल की उत्पत्ति कच्छ के बन्नी क्षेत्र से हुई है, जो गुजरात के कच्छ जिले का एक हिस्सा है. ये नस्ल मुख्य रूप से भुज, नखत्राणा, अंजार, भाहाउ, लखपत, रापर और खावड़ा तालुका में बेहद प्रचलित शुद्ध नस्ल का पशु माना जाता है. इसके सींग दोहरे और ऊर्ध्वाधर होने के साथ भारी आकार के होते हैं.
देश के कुल दूध उत्पादन 230.58 मिलियन टन में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी भैंस की 54 फीसदी है. लगातार देश में दूध उत्पादन बढ़ रहा है.बड़े दुधारू पशुओं की बात करें तो उसमे भैंसों की संख्या 11 करोड़ के आसपास है. कच्छ के “सुई-जेनेसिस” जर्मप्लाज्म यानी “बन्नी भैंस” का रखरखाव बेहद आसान माना जाता है. सख्त जलवायु परिस्थितियों में भी इसे अच्छी तरह से पाला जा सकता है. ये बिन्नी भैंस दूध उत्पादन में भी बहुत अच्छी मानी जाती है. पशुपालकों के लिए विशेष आजीविका का साधन है. इस भैंस की एक और खूबी है कि बन्नी घास की भूमि पर चरने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. रात को चरती है और सुबह दूध देने के लिए अपने गांवों में आ जाती हैं. भैंस पालन की इस पारंपरिक प्रणाली को गर्मी के तनाव और दिन के उच्च तापमान से बचने के लिए अपनाया जाता है.
बिन्नी भैंस को पालने में प्रबंधन के तरीके
बिन्नी नस्ल के जानवरों को रात्रि चराई प्रणाली के तहत पाला जाता है, जबकि छोटे बछड़ों को बाड़े में रखा जाता है. दूध निकालने के दौरान सभी जानवर खुले रहते हैं, जहां मालिक या तो अगले पैर या पिछले पैर बांधते हैं, जिसे स्थानीय रूप से क्रमशः “नुंजन” और “वंघ” कहा जाता है. दुधारु और गर्भवती पशुओं और बछड़ों को “पावरो” नामक आहार में दिया जाने वाला सांद्रण, बिना किसी बर्बादी के सांद्र आहार देने का बहुत ही आदर्श तरीका है. इन जानवरों को पालने की प्रणाली को “बन्नी भैंस देहाती उत्पादन प्रणाली” कहा जा सकता है, जहां जानवरों को कोई आश्रय नहीं मिलता है और तालाबों या सामान्य जल कुंड में सामान्य पानी की सुविधा होती है. कच्छ के पशुपालकों ने अलग-अलग भैंस पालन प्रणाली को अपनाया है. भैंस पालन के बारे में नीचे दी गई जानकारी को जरूर पढ़िएगा.
व्यापक देहाती उत्पादन प्रणाली
यह प्रणाली नखत्राणा, हाजीपीर क्षेत्र (नानी बन्नी क्षेत्र या पश्चिम बन्नी क्षेत्र) में अपनाई जाती है, जहां शाम को भैंसों को जंगल में ले जाया जाता है, वे रात भर चराने के लिए रुकते हैं और सुबह गांव में वापस आ जाते हैं. कभी-कभी मालिक जानवरों के साथ नहीं जाते हैं और भैंस स्वयं ही दिनचर्या का पालन करती है. सभी जानवर जंगल में चरने पर ही निर्भर रहते हैं, जबकि केवल दुधारू जानवर ही दूध निकालने के दौरान सांद्र मिश्रण उपलब्ध कराते हैं.
अर्ध-गहन देहाती उत्पादन प्रणाली
दिन के समय जानवरों को पेड़ की छाया में बांधा जाता है और हरा/सूखा चारा दिया जाता है. दुधारू पशुओं को दूध निकालने के दौरान ही सांद्र मिश्रण दिया जाता है. हालांकि, सभी जानवरों को रात के समय जंगल में चराने के लिए ले जाया जाता है. यह प्रणाली पूर्वी बन्नी क्षेत्र / ग्रेटर बन्नी क्षेत्र में अपनाई जाती है, जिसमें खावड़ा, भिरंडियारा, धोरी, सुमरासर क्षेत्र शामिल हैं. मालधारियों ने हाथ से दूध निकालने की पारंपरिक प्रणाली को दिन में केवल एक या दो बार अपनाया, यह विपणन सुविधाओं पर निर्भर करता है. दुधारू पशुओं को दूध दोहने से पहले केवल बेग में ही सांद्र मिश्रण दिया जाता है, जिसे उसके सिर पर लटकाया जाता है.
आहार प्रबंधन
बन्नी क्षेत्र में, भैंसों को व्यापक उत्पादन प्रणाली के तहत रखा जाता है और रात के दौरान बन्नी घास के मैदान में चराया जाता है. पशुपालक पारंपरिक प्रणाली से दूध दुहते समय पूरक आहार देते थे. दूध पिलाने वाले पशुओं को पूरक आहार के लिए आमतौर पर घर का बना सांद्रण देते हैं.
भैंस को दिया जाने वाला ये है आहार 3-4 किलो आहार बनाने के लिए पशुपालक 25 फीसदी कपास के बीज की खली और 75 फीसदी गेहूं की भूसी मिलाई जाती है. वहीं 4-5 किग्रा/पशु आहार बनाने के लिए 35 फीसदी मूंगफली की खली और 65 फीसदी गेहूं की भूसी को मिलाकर देते हैं.
चारे की कमी के दौरान (गर्मी) में राज्य सरकार द्वारा बन्नी विकास योजना के माध्यम से पशुधन मालिकों को सूखा चारा/घास की आपूर्ति की जाती है. पशुपालक (मालधारी) गर्मियों में अपने जानवरों को खिलाने के लिए 4 -5 किलोग्राम / दिन / पशु की दर से कपास के छिलके (स्थानीय रूप से “थालिया” कहा जाता है) भी खरीदते हैं. इन्हें 3- 4 घंटे पानी में भिगोने के बाद पशु को देते हैं.
बछड़ा प्रबंधन
सभी बछड़ों को गर्मी-सर्दी और शिकारियों से बचाने के लिए लकड़ी/झाड़ियों से बने अलग-अलग बाड़े में रखा जाता है, पेड़ों की छाया में घेरा खुला रहता है. वैसे तो बछड़े दूध दुहने से पहले और बाद में दूध पिलाया जाना चाहिए लेकिन ने की अनुमति देते हैं, पशु मालिक केवल दूध दुहने के बाद ही भैंस के बच्चे को दूध पिलाते हैं. छोटे बछड़ों को जंगल में चरने की अनुमति नहीं है, हालांकि उन्हें दुधारू भैंसों को खिलाया जाने वाला सांद्र मिश्रण खिलाया जाता है. उच्च/निम्न तापमान और जंगली जानवरों से बचाने के लिए युवा बछड़ों को बिना किसी छत के पेड़ के चारों ओर अलग लकड़ी के बाड़े में रखा जाता है
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