नई दिल्ली. ब्रॉयलर इंटिग्रेशन फार्मिंग में कांट्रेक्ट सिस्टम के तहत कंपनियों की ममनानी रोकने के लिए साल 2022 में केंद्र सरकार की ओर गाइडलाइन जारी की गई थी. अन्य जगहों पर तो ये लागू हो गई है लेकिन ओडिशा में अभी इसे लागू नहीं किया गया है. इसके चलते राज्य के पोल्ट्री फार्मर्स को अभी भी कंपनियों की मनमानी सहनी पड़ रही है. इसके चलते पोल्ट्री फार्मर्स फेडरेशन ऑफ ओडिशा के सदस्यों ने राज्य के अध्यक्ष रतिकांता पॉल की अध्यक्षता में पोल्ट्री किसान अपनी विभिन्न मांगों के संबंध में ओडिशा के मुख्यमंत्री और पशु संसाधन विभाग के मंत्री गोकुल आनंद मल्लिक से मिले.
मुलाकात के दौरान केंद्र सरकार की गाइड लाइन का लागू किया जाने की मांग उठाई. कहा गया है कि दिसंबर 2022 से गाइड लाइन जारी की गई है, लेकिन पिछली सरकार की उदासीनता के कारण इसे अभी तक राज्य में लागू नहीं किया गया है. इस संबंध में रतिकांता पॉल ने बताया कि मुख्यमंत्री और मंत्री दोनों ने ही पोल्ट्री किसानों की समस्याओं को सुना और कुछ दिनों के भीतर उचित कदम उठाने की बात कही है.
कंपनियां कर रही हैं मनमानी
गौरतलब है कि खेती के बाद अब पोल्ट्री (मुर्गी पालन) में भी कांट्रेक्ट सिस्टम शुरू हो गया है. खासतौर पर ब्रॉयलर इंटिग्रेशन फार्मिंग (चिकन) में कंपनियां इंटिग्रेशन पोल्ट्री एग्रीमेंट करती हैं. जिसके बाद फार्मर को मुर्गी के चूजे दिए जाते हैं. फिर एक तय वजन तक तैयार होने पर उन्हें वापस ले लिया जाता है. फिर कंपनियां पहले से तय प्रति किलो रेट के हिसाब पोल्ट्री फार्मर को पेमेंट करती हैं. रेट और दूसरी शर्तें आदि सब एक एग्रीमेंट में तय हो जाती हैं. लेकिन उड़ीशा से लेकर पंजाब तक के फार्मर्स का आरोप है कि कंपनियां उन्हें एग्रीमेंट की कॉपी नहीं देती हैं. जबकि उनसे तमाम दस्तावेज और एडवांस में खाली चेक ले लिए जाते हैं. जबकि फार्मर और पोल्ट्री एसोसिएशन की डिमांड पर केन्द्र सरकार द्वारा लागू पॉलिसी को भी कंपनियां नहीं मान रही हैं. वहीं पॉलिसी लागू कराने में राज्य सरकारें भी पूरी पोल्ट्री फार्मर्स की मदद नहीं कर रही हैं.
लागत बढ़ने पर नहीं मिलता सही दाम
पोल्ट्री फार्मर फेडरेशन ऑफ ओडिशा के प्रेसीडेंट रतिकांता पॉल का कहना है कि कंपनियों ने कुछ ऐसी शर्तें लगा रखी हैं जिससे फार्मर्स को बेहद ही दिक्कतें होती हैं. ब्रॉयल मुर्गे के पालन में जो लागत आती है उसके मुकाबले कंपनियां बहुत ही कम दाम देती हैं. कई ऐसे खर्च हैं जिन्हें कंपनियां लागत में ही नहीं जोड़ती हैं. अगर प्राकृतिक आपदा के चलते चूजों या मुर्गों की मौत होती है तो उसकी भरपाई कंपनियां फार्मर से करती हैं. कंपनियां चूजे देते वक्त उनकी क्वालिटी नहीं बताती हैं. उनका वजन और उन्हें लगी वैक्सीन के बारे में जानकारी नहीं दी जाती है. फीड की क्वालिटी भी नहीं बताई जाती है. दाने में क्या-क्या मिलाया है, इसकी जानकारी बोरी पर नहीं होती है. मुर्गा तैयार होने पर कंपनियां वक्त से माल नहीं उठाती हैं. इस वजह से लागत बढ़ती और जब मुर्गा दाना ज्यादा खाता है और वजन कम बढ़ता है तो इससे भी लागत बढ़ जाती है. कंपनियां मनमानी करते हुए लागत की कटौती भी फार्मर से करती हैं.
आत्महत्या कर चुका है पोल्ट्री फार्मर
पालने के लिए लगातार चूजे नहीं दिए जाते हैं. एक से लेकर तीन महीने तक का गैप कर दिया जाता है. जबकि पोल्ट्री फार्म पर लेबर का खर्च और बिजली का फिक्स चार्ज तो देना ही है. रतिकांता पॉल का कहना है कि ब्रॉयलर इंटिग्रेशन फार्मिंग के तहत रेट कम दिए जा रहे हैं. उस पर भी हाल ये है कि हर कंपनी का ग्रोइंग रेट अलग-अलग है. एक कंपनी ऐसी है जो प्रति किलो सात रुपये दे रही है. जबकि दूसरी कंपनी आठ तो तीसरी कंपनी नौ और 10 रुपये तक दे रही हैं. मौसम के हिसाब से कंपनी रेट बदलती रहती हैं. कंपनियों की इसी मनमानी के चलते ही अभी हाल ही मैं एक पोल्ट्री फार्मर ने हमारे ओड़िशा में आत्महत्या कर ली थी.
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