नई दिल्ली. पोल्ट्री यानी मुर्गी पालन में कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम शुरू हो जाने से पोल्ट्री फार्मर के सामने कई तरह की समस्याएं खड़ी हो गई हैं. ब्रॉयलर इंटीग्रेशन फार्मिंग में कंपनियां इंटीग्रेशन पोल्ट्री एग्रीमेंट कर रही हैं. जिसमें फार्मर को मुर्गी के चूजे चिप्स दिए जाते हैं और कंपनियों द्वारा तय किए गए वजन के मुताबिक इन्हें तैयार होने पर उनसे ले लिया जाता है. एग्रीमेंट के मुताबिक इसके बदले के प्रति किलो जो रेट फार्मर को पेमेंट करना होता है ये सारी बातें एग्रीमेंट में तय की जाती हैं. लेकिन उड़ीशा से लेकर पंजाब तक के फार्मर एग्रीमेंट के नियमों से परेशान है और उनका कहना है कि कंपनियां उन्हें एग्रीमेंट की कॉपी तक नहीं देती है जबकि उनसे दस्तावेज और एडवांस खाली चेक ले लिए जाते हैं. फार्मर्स का कहना है कि पोल्ट्री संगठन की डिमांड पर केंद्र सरकार ने पॉलिसी को लागू किया लेकिन कंपनियां उन्हें नहीं मान रही हैं. जबकि राज्य सरकार भी कंपनियों को पॉलिसी मानें के लिए आदेशित नहीं कर रहे हैं. उनका सहयोग भी न के बराबर मिल रहा है.
कंपनियों ने रखी है मनमानी शर्त
फार्मर कई बार कंपनियों की पॉलिसी की वजह से खुद को मजबूर महसूस करते हैं. बताया जा रहा है कि बॉयलर इंटीग्रेशन फार्मिंग में कंपनियां पोल्ट्री फार्मर से गारंटी के लिए खाली चेक यानि पोस्ट डेटेड चे ले लेती हैं साथ में उनकी पत्नी से भी गारंटी के लिए साइन कराने से नहीं चूकती हैं. जबकि शर्त कंपनी अपने हिसाब से तय करती हैं और एग्रीमेंट की कॉपी तक पोल्ट्री फार्मर को नहीं दी जा रही है. पोल्ट्री फार्मर बॉयलर वेलफेयर फेडरेशन के सचिव संजय शर्मा की मानें तो पोल्ट्री फार्मर को सही दाम न मिलना तो एक बड़ी परेशानी है ही जबकि कंपनियों ने कई मनमानी शर्त भी रखी हुई हैं. जिससे फार्मर को बेहद दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. उनका कहना है कि ब्रॉयलर मुर्गी को पालन पर जो खर्च आता है. कंपनियां उसके सापेक्ष बहुत ही कम दाम उन्हें देती हैं. जबकि मुर्गी पालन में कई ऐसे खर्चे हैं. जिन्हें कंपनियां नहीं जोड़ती.
पोल्ट्री फार्मर्स को हो रही परेशानी
जिसका सीधा असर फार्मर पर पड़ता है. हद तो यह है कि प्राकृतिक आपदा के चलते चूजे हो या मुर्गी के मौत होने पर इसकी भरपाई भी फार्मर को करनी पड़ती है. यह ऐसे नियम है जो फार्मरों को दिक्कतों में डाल देते हैं. जबकि दूसरी और कंपनियां अपनी मनमानी करती रहती हैं. चूजे देते वक्त उनकी क्वालिटी फार्मर को नहीं बताई जाती. उनका वजन और उन्हें लगने वाली वैक्सीन के बारे में भी कोई जानकारी मुहैया नहीं कराई जाती. जबकि फीड देते वक्त उसकी क्वालिटी के बारे में भी नहीं बताया जाता है. जबकि कंपनियों द्वारा मिलने वाले दाने में क्या-क्या मिलाया गया, इसकी भी जानकारी फार्मर को नहीं होती. जबकि मुर्गा तैयार हो जाता है तो कंपनी या माल उठाने में भी देर करती हैं. जिसके चलते फार्मर्स की लागत में बढ़ना लाजमी है.
बढ़ जाता है अतिरिक्त खर्च
कई बार मुर्गी दाना ज्यादा खाते हैं लेकिन वजन कम बढ़ता है तो इससे उनकी लागत बढ़ जाती है और इसकी भी भरपाई फार्मर से ही की जाती है. हद तो यह है कि पालने के लिए लगातार चूजे भी नहीं दिए जाते हैं. 1 से 3 महीने का गैप आम सी बात है. जबकि इस दौरान पोल्ट्री फार्म पर लेबर का खर्च और बिजली आदि का खर्च तो लगातार होता ही है. इस संबंध में पोल्ट्री फार्मर फेडरेशन ऑफ उड़ीसा के प्रेसिडेंट रजनीकांत पॉल ने कहा कि बॉयलर इंटीग्रेशन फार्मिंग के तहत रेट कम दिए जा रहे हैं. जबकि कंपनी का ग्रोइंग रेट अलग है. कंपनी प्रति किलो सात रुपए दे रही हैं एक अन्य कंपनी 8 तो कुछ कंपनी सिर्फ ₹10 तक देती हैं. यही वजह है कि कंपनियों की मनमानी के कारण हाल ही में उड़ीसा में एक फार्मर ने आत्महत्या कर ली थी.
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