नई दिल्ली. मछली पालन भी एक बहुत ही मुनाफे का कारोबार है. भारत में मुख्य रूप से रोहू एक मुख्य भारतीय कार्प है जो दक्षिण एशिया में पाई जाती है. इस मछली को रोहू, रुई और तापरा के नाम से भी जाना जाता है. इसका सिर छोटा, तीखा मुंह और निचला होंठ झालर की तरह होता है. वहीं इसके शरीर का आकार लंबा और गोल, रंग भूरा सलेटी और लगभग लाल रंग के चाने होते हैं. पंखों और सिर को छोड़ दिया जाए तो उसका पूरा शरीर स्केल से ढका होता है. रोहू में सात पंख मौजूद होते हैं. इसकी लंबाई ज्यादा से ज्यादा 1 मीटर तक होती है.
नहरों, नदियों झीलों में पाई जाती है
यह मछली आमतौर पर पानी के गले, सड़े, नदीन बचे खुचे पदार्थ खाती है. मॉनसून के मौसम के दौरान रोहू मछली वर्ष में एक बार अंडे देती है. ये मछली अपने स्वाद और मार्केट मांग को लेकर बहुत ज्यादा मशहूर है. इस प्रजाति को मछली पालन के उपयोग में लिया जाता है. ज्यादातर ताजा पानी के तालाब, खाइयों, नहरों, नदियों और झीलों आदि में ये पाई जाती है. यह मछली मरीगल और कतला मछलियों के साथ समान्य अनुपात में पाली जा सकती है. इस मछली का प्रति वर्ष औसतन 0.08 मिलियन प्रति एकड़ उत्पादन होता है. ये मछली अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार दो से ढाई लाख अंडे देती है. मछली का भार तालाब पानी की स्थिति गहराई मंडीकरण के समय मछली का आकार फीड की प्रकार आदि जैसे कारकों को संख्या पर निर्भर करता है.
9 महीने में हो जाती है 1 केजी तक
एक्सपर्ट कहते हैं कि यदि फरवरी मार्च के महीने में मछली को पानी में छोड़ जाए तो उसका आकार ढाई से 3 इंच हो तो या दिसंबर महीने तक लगभग 1 किलो तक हो जाएगी. यदि तालाब में 10 हजार मछलियां संग्रहित की जाए तो लगभग 6 हजार रोहू मछलियों मिल जाएगीं. मछली की विभिन्न नस्लों और उनके आहार में प्रोटीन दिया जाता है. जैसे मरीन श्रृंप को 80 से 20, कैटफिश को 28 से 32 फीसदी, तिलापिया को 32 से 38 फीसदी और हाइब्रिड ब्रास को 38 से 42 फीसदी की आवश्यकता होती है. वसा की बात की जाए तो मरीन मछलियों की सेहत और उच्च विधि के लिए उन्हें उनके भोजन में वसा के रूप में एन 3 एचयूएफए की आवश्यकता होती है.
फिश फार्म के लिए इन बातों का रखें ख्याल
इस मछली की देखभाल की बात की जाए तो मुख्य रूप से वो भूमि जो खेतीबाड़ी के लिए अच्छी नहीं होती है, उसे फिश फार्म बनाने के लिए उपयोग किया जाता है. फिश फार्म के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी होता है. इस भूमि में पानी को रोककर रखने की क्षमता होनी चाहिए. रेतली और दोमट भूमि पर तालाब नहीं बनना चाहिए. यदि आप मिट्टी की जांच करवाना चाहते हैं तो भूमि पर एक फीट चौड़ा गड्ढा खोदे और इस पानी से भरें. यदि गड्ढे में पानी एक-दो दिन के लिए रहता है तो यह भूमि मछली पालन के लिए ठीक मानी जाएगी, लेकिन यदि गड्ढे में पानी नहीं रहता तो यह भूमि मछली पालन के लिए अच्छी नहीं है. तालाब तीन तरह के होते हैं. नर्सरी तालाब, मछली पालन तालाब और मछली उत्पादन तालाब.
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