Home पशुपालन Shepherd: भेड़-बकरी को लेकर एक-जगह से दूसरी घूमते रहते हैं चरवाहे, यहां पढ़ें कैसी गुजरती है उनकी जिंदगी
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Shepherd: भेड़-बकरी को लेकर एक-जगह से दूसरी घूमते रहते हैं चरवाहे, यहां पढ़ें कैसी गुजरती है उनकी जिंदगी

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प्रतीकात्मक फोटो

नई दिल्ली. जम्मू और कश्मीर के गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े रेवड़ रखते हैं. इस समुदाय के अधिकतर लोग अपने मवेशियों के लिए चरागाहों की तलाश में भटकते-भटकते रहते हैं. इनके बारे में कहा जाता है कि ये समुदाय के लोग उन्नीसवीं सदी में यहाँ आए थे. जैसे-जैसे समय बीतता गया तो ये सभी यहीं के होकर रह गए. इसके बाद वे सर्दी-गर्मी के हिसाब से अलग-अलग चरागाहों में जाने लगे. जाड़ों में जब ऊंची पहाड़ियाँ बर्फ से ढक जातीं तो वे शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आकर डेरा डाल लेते हैं. जाड़ों में निचले इलाके में मिलने वाली सूखी झाड़ियां ही उनके जानवरों के लिए चारा बन जातीं हैं.

फिर अप्रैल के आखिरी तक वे उत्तर दिशा में जाने लगते गर्मियों के चरागाहों के लिए इस सफ़र में कई परिवार काफ़िला बना कर साथ-साथ चलते थे. चरवाहे पीर पंजाल के दरों को पार करते हुए कश्मीर की घाटी में पहुंच जाते. जैसे ही गर्मियाँ शुरू होतीं, जमी हुई बर्फ़ की मोटी चादर पिघलने लगती और चारों तरफ़ हरियाली छा जाती है, इन दिनों में यहाँ उगने वाली तरह-तरह की घास से मवेशियों का पेट भी भर जाता है और उन्हें सेहतमंद खुराक भी मिल जाती है. सितंबर के अंत में बकरवाल एक बार फिर अपना बोरिया-बिस्तर समेटने लगते हैं. इस बार वे वापस अपने जाड़ों वाले ठिकाने की तरफ़ नीचे की ओर चले जाते हैं. जब पहाड़ों की चोटियों पर बर्फ़ जमने लगती तो वे निचली पहाड़ियों की शरण में चले जाते.

गद्दी समुदाय के चरवाहे
इस तरह से हिमाचल प्रदेश के इस समुदाय को गद्दी कहते हैं. ये लोग भी मौसमी उतार-चढ़ाव का सामना करने के लिए इसी तरह सर्दी-गर्मी के हिसाब से अपनी जगह बदलते रहते हैं. वे भी शिवालिक की निचली पहाड़ियों में अपने मवेशियों को झाड़ियों में चराते हुए जाड़ा बिताते हैं. अप्रैल आते-आते वे उत्तर की तरफ़ चल पड़ते और पूरी गर्मियाँ लाहौल और स्पीति में बिता देते हैं. जब बर्फ पिघलती और ऊँचे दर्रे खुल जाते तो उनमें से बहुत सारे ऊपरी पहाड़ों में स्थित घास के मैदानों में जा पहुँचते हैं. सितंबर तक वे दोबारा वापस चल पड़ते हैं और वापसी में वे लाहौल और स्पीति के गाँवों में एक बार फिर कुछ समय के लिए रुकते हैं. इस बीच वे गर्मियों की फ़सलें काटते और सर्दियों की फ़सलों की बुवाई करके आगे बढ़ जाते हैं. यहाँ से वे अपने रेवड़ लेकर शिवालिक की पहाड़ियों में जाड़ों वाले चरागाहों में चले जाते और अगली अप्रैल में भेड़-बकरियाँ लेकर वे दोबारा दोबारा गर्मियों के चरागाहों की तरफ रवाना हो जाते हैं.

19वीं सदी में आए यहीं के होकर रह गए
वहीं गढ़वाल और कुमाऊँ के गुज्जर चरवाहे सर्दियों में भाबर के सूखे जंगलों की तरन और गर्मियों में ऊपरी घास के मैदानों-बुग्याल–की तरफ़ चले जाते हैं. इनमें से बहुत सारे हरे-भरे चरागाहों की तलाश में उन्नीसवीं सदी में जम्मू से उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों में आए थे और बाद में यहीं बस गए. सर्दी-गर्मी के हिसाब से हर साल चरागाह बदलते रहने का यह चलन हिमालय के पर्वतों में रहने वाले बहुत सारे चरवाहा समुदायों में दिखायी देता है. यहां के भोटिया, शेरपा और किन्नौरी समुदाय के लोग भी इसी तरह के चरवाहे हैं. ये सभी समुदाय मौसमी बदलावों के हिसाब से खुद को ढालते थे और अलग-अलग इलाकों में पड़ने वाले चरागाहों का बेहतरीन इस्तेमाल करते हैं. जब एक चरागाह की हरियाली खत्म हो जाती है या इस्तेमाल के काबिल नहीं रह जाती थी तो वे किसी और चरागाह की तरफ़ चले जाते हैं. इस आवाजाही से चरागाह ज़रूरत से ज्यादा इस्तेमाल से भी बच जाते थे और उनमें दोबारा हरियाली व जिंदगी भी लौट आती है.

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