नई दिल्ली. आजादी के बाद चरवाहों की जिंगदी में कई बदलाव आए. जबकि पशुओं के लिए चारागाहें भी बदल गईं. इन बदलावों पर चरवाहों की प्रतिक्रिया कई रूपों में सामने आई. कुछ चरवाहों ने तो अपने जानवरों की संख्या ही कम कर दी. जबकि बहुत सारे जानवरों को चराने के लिए पहले की तरह बड़े-बड़े और बहुत सारे मैदान नहीं बचे थे. जब पुराने चरागाहों का इस्तेमाल करना मुश्किल हो गया तो कुछ चरवाहों ने नए-नए चरागाह ढूंढ़ लिया. मिसाल के तौर पर, ऊँट और भेड़ पालने वाले राइका 1947 के बाद न तो सिंध में दाखिल हो सकते थे और न सिंधु नदी के किनारे अपने जानवरों को चरा सकते थे.
इसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच खींच दी गई नई सीमारेखा ने उन्हें उस तरफ जाने से रोक दिया. जाहिर है अब उन्हें जानवरों को चराने के लिए नई जगह ढूंढ़नी थी. अब वे हरियाणा के खेतों में जाने लगे हैं जहाँ कटाई के बाद खाली पड़े खेतों में वे अपने मवेशियों को चरा सकते हैं. इसी समय खेतों को खाद की भी जरूरत रहती है जो उन्हें इन जानवरों के मल-मूत्र से मिल जाती है.
कई चरवाहे मजदूर बन गए
समय गुजरने के साथ कुछ धनी चरवाहे जमीन खरीद कर एक जगह बस कर रहने लगे. उनमें से कुछ नियमित रूप से खेती करने लगे जबकि कुछ व्यापार करने लगे. जिन चरवाहों के पास ज्यादा पैसा नहीं था सूदखोरों से ब्याज पर कर्ज लेकर दिन काटने लगे. इस चक्कर में बहुतों के मवेशी भी हाथ से जाते रहे और वे मजदूर बन कर रह गए. वे खेतों या छोटे-मोटे कस्बों में मजदूरी करते दिखाई देने लगे. इस सबके बावजूद चरवाहे न केवल आज भी जिंदा हैं बल्कि हाल के दशकों में कई जगह तो उनकी संख्या में वृद्धि भी हुई है.
दूसरे काम-धंधे भी करने लगे
जब भी किसी इलाके के चरागाहों में उनके दाखिले पर रोक लगा दी जाती वे अपनी दिशा बदल लेते, रेवड़ छोटा कर लेते और नई दुनिया के मिजाज से तालमेल बिठाने के लिए दूसरे काम-धंधे भी करने लगते. बहुत सारे पारिस्थिति विज्ञानी मानते हैं कि सूखे इलाकों और पहाड़ों में जिंदा रहने के लिए चरवाही ही सबसे व्यावहारिक रास्ता है. बहरहाल, चरवाहों पर इस तरह के बदलाव सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं थोपे गए थे. दुनिया के बहुत सारे इलाकों में नए कानूनों और बसाहट के नए तौर-तरीकों ने उन्हें आधुनिक दुनिया में आ रहे बदलावों के मुताबिक अपनी जिंदगी का ढर्रा बदलने पर मजबूर किया है.
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