नई दिल्ली. भैंस पालन करके बहुत से पशुपालन अच्छी कमाई करते हैं. दूध उत्पादन के लिए बहुत सी नस्लों की भैंस को पाला जाता है. वहीं कई पशुपालक ब्रह्मपुत्र नदी के दलदली क्षेत्रों में पाई जाने वाली स्वाम्प भैंस को भी पालते हैं. ये भैंस कुछ हद तक जंगली भैंस जैसी नजर दिखती है. हालांक ये भैंस दूध देने के लिए ज्यादा मशहूर नहीं है. इसके चलते इससे अन्य काम भी लिया जाता है. वहीं इस भैंस के नस्ल का भी कार्य चल रहा है. इस भैंस का रंग हल्का तथा गहरा काला होता है. शारीर का आकार छोटा व गठीला होता है.
वहीं इस नस्ल की गर्दन हलकी व पतली होती है, सींग सीधे लम्बे व अंत में मुड़े हुए होते हैं. इसका औसत दूध उत्पादन 305 दिनों का 500 किलोग्राम होता है. प्रथम बंयात की उम्र 54-55 महीने की होती है. औसतन दुग्ध काल 313 दिनों का होता है, तथा बंयात अन्तराल औसतन 511 दिनों का होता है.
सबसे अच्छी नस्ल की है ये भैंस
जानकारी के लिए बता दें कि देश में भैंस की कई जातियां हैं. जिनका गुण निर्धारण का कार्य चल रहा है, जैसे की बननी गुजरात से गोदावरी आंध्र प्रदेश से, आसामी व मणिपुरी पूर्वोत्तर राज्यों से कालाहांडी, चिल्का, परलखमुडी, कुजंग व संबलपुरी उड़ीसा से हैं. ये सभी महत्वपूरण नस्लें है जिनके विकास पर ध्यान देने की जरूरत है. वहीं दूध उत्पादन की दृष्टि से मुर्रा नस्ल की भैंस सबसे ज्यादा अच्छी मानी जाती है. यह विश्व में सबसे अधिक दूध देती है. भारत में इस नस्ल को सबसे अधिक उत्तर भारत में पाला जाता है. इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नस्ले भी हैं जो सूखे इलाकों में पाई जाती हैं. इसको पालकर किसान अच्छी खासी इनकम हासिल कर लेते हैं.
सूखे में भी कम नहीं होता उत्पादन
वहीं टोडा, मराठ्वाडा आदि जीनका दूध उत्पादन तो कम होता है, लेकिन इनसे दूध उत्पादन जीरो लागत पर ही मिल जाता है, साथ में इनके अन्दर सूखे को भी सहन करने की जबर्जस्त क्षमता होती है. इन नस्लों को प्रजनन, उचित पोषण व अच्छे रख रखाव से सुधारा जा सकता है, व अच्छा उत्पादन भी लिया जा सकता है. भैंसों में प्रजनन की सबसे बड़ी समस्या है, क्योंकि भैंस एक मौसमी प्रजनक पशु है. इसके आलावा भैंस में प्रथम ब्यात की उम्र भी अधिक होना एक कारण है. एक्सपर्ट का कहना है कि अभी भैंसों में अभी दूध उत्पादन बदने के लिए काफी सारे प्रयासों की जरूरत है. ताकि पशुपालकों को और ज्यादा फायदा हो सके और भारत में प्रति पशु दूध उत्पादन भी बढ़ सके.
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