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LSD Disease: पढ़ें लंपी रोग की फुल डिटेल, बचाव और इलाज का तरीका

दो महीने का टीकाकरण अभियान चलाया जा रहा है, जिससे रोग के प्रसार को समय रहते रोका जा सके.
प्रतीकात्मक तस्वीर.

नई दिल्ली. लंपी रोग आमतौर पर गाय एवं भैंसे कैप्रीपॉक्स नामक संक्रामक के कारण होता है. पशुओं में एक ऐसा रोग है, जिससे पशु दुबलेपन के शिकार हो जाते हैं. उनका दूध उत्पादन कम हो जाता है. जबकि विकास भी रुक जाता है. इसके अलावा बांझपन गर्भपात और कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है. बुखार की शुरुआत वायरस से संक्रमण के लगभग एक सप्ताह के बाद होती है. शुरू में ये 41 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो सकता है और एक सप्ताह तक या बना रहता है. लंपी रोग से बचाव के लिए केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान मेरठ की ओर से एडवाइजरी जारी की गई है. समें लंपी रोग के बचाव एवं नियंत्रण कैसे किया जाए इस बारे में डिटेल है.

क्या है बीमारी के लक्षण
बीमारी की शुरुआत में प्रभावित पशुओं को बुखार आता है. इसके दो से तीन दिन बाद पशु के शरीर पर 2 से 5 सेंटीमीटर व्यास की गोलाकार गांठे बन जाती हैं. बीमारी की तीव्रता अधिक होने की वजह से गांठे फुटकर त्वचा पर जख्म भी बन जाती हैं. तथा इसे मवाद आने लगता है. या गाठें मुंह गले के अंदर और सांस लेनी वाली नलियां भी बन जाती हैं. दुधारू पशु का दूध उत्पादन घट जाता है. गर्भधारण किए हुए पशुओं का गर्भपात हो जाता है. बीमारी से पीड़ित अधिकतर पशु दो से तीन हफ्ते में ठीक हो जाते हैं. बीमारी की अधिक तीव्रता वाले पशु जिसमें श्वसन तंत्र प्रभावित हो जाता है उनकी मृत्यु हो सकती है.

क्या है बचाओ नियंत्रण का तरीका
बीमारी से ग्रसित पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए. जिन गांवों में बीमारी फैली हुई है, वहां बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से के संपर्क में आने से बचना चाहिए. यह बीमारी मच्छर, मक्खियों चिड़िया द्वारा फैलती है. उनके आवास में साइपिमैथिीन, डेल्टामैविन, अवमतिाज़ दवाओं दो मिली प्रति लीटर में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए. बीमारी वाले क्षेत्र से गैर बीमारी वाले क्षेत्र में पशुओं का आवागमन बंद कर देना चाहिए. बीमारी वाले क्षेत्र से गैर बीमारी वाले क्षेत्र में पशुओं को नहीं ले जाना चाहिए. बीमारी फैलने की अवस्था में पशुओं को पशु पशु मेला इत्यादि में नहीं ले जाना चाहिए. पशुओं के प्रबंध में प्रयुक्त वाहन एवं उपकरण के साफ-सफाई करनी चाहिए. संक्रमित पशुओं की देखभाल में लगे व्यक्तियों को जैव सुरक्षा उपायों जैसे
साबुन, सैनेटाइजेशन करना चाहिए. पशुओं के बाड़े में किसी भी अनावश्यक बाहरी व्यक्ति एवं वाहन के प्रवेश पर रोक लगा देनी चाहिए. पशुशाला में नियमित चूना पाउडर का छिड़काव करना चाहिए. पशु आवास में गोबर मूत्र अपनी गंदगी आदि को गत्रित नहीं होने देना चाहिए. पशु के दूध का उपयोग उबालकर करना चाहिए रोगी पशु की संतुलित आहार हरा चारा दलिया गुण आदि खिलाए जिससे कि पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत हो.

इस तरह करें उपचार
उपचार की बात की जाए तो यह एक संक्रामक रोग है, इसलिए इसकी कोई सटीक दवा नहीं है. सर्वप्रथम रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए. पशु चिकित्सा की सलाह लेनी चाहिए. इससे बचाव के लिए एंटीबायोटिक दवा और बुखार एवं सूजन के लिए एंटीपायरेटिक एंटी इंफ्लामेटरी एवं मल्टीविटामिन दवाएं 4 से 5 दिन तक लगवानी चाहिए. पशु की भूख बढ़ाने के लिए हिमालयन बतीसा पाउडर रुचामेक्स पाउडर आदि हर्बल दावों का प्रयोग किया जाना चाहिए. यदि त्वचा पर जख्म बन जाए तो जख्मो पर नियमित रूप से बीटाडीन एवं एंटीसेप्टिक दवा का स्प्रे करना चाहिए. जख्मों के उपचार के लिए कुछ हर्बल दवाएं टॉपिक्योर, स्कैवोन, चार्मिल, हाइमेक्स आदि बाजार में मिल जाती है.

पशुओं की मौत हो जाए तो क्या करें
इस रोग से मृत पशुओं को गहरे गड्ढे में चूना एवं नमक डालकर दबा देना चाहिए. तथा ऐसे पशु को खुले में नहीं फेंकना चाहिए. क्योंकि बीमारी इससे और अधिक फैल सकती है. मृत पशु को निस्तारण वाला स्थान लोगों के रिहायशी स्थान, पशु आवास एवं जल स्रोतों से दूर होना चाहिए. मृत पशुओं के परिवहन में प्रयुक्त वाहन पशु आवास को सोडियम हाइपोक्लोराइट सफाई करनी चाहिए. मृत पशु के चारे दाने को भी जलाकर नष्ट कर देना चाहिए. मृत पशु के स्थान को संक्रमण से दूर करने के लिए सूखी घास रखकर जला देना चाहिए.

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