नई दिल्ली. मिथुन जंगली गायों का एक पालतू रूप है. ये पूर्वोत्तर भारत में पर्वतीय क्षेत्र में पाया जाता है. इसके अलावा चीन में म्यांमार और भूटान में पाया जाता है. इसे पूर्वोत्तर भारत के पर्वतीय क्षेत्र का उपहार भी कहा जाता है. एक्सपर्ट कहते हैं कि मिथुन एक व्यक्ति प्रेमी पशु माना जाता है. जिसका पशुधन उत्पादन प्रणाली में महत्वपूर्ण स्थान है. मिथुन मुख्य रूप से जंगली क्षेत्रों में पाला जाता है. यह स्थानीय जनजातीय के लोगों के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. मिथुन पालन स्थानीय जनजाति समाज में एक गर्व की बात मानी जाती है. क्योंकि यह मिथुन पालक के सामाजिक स्तर को दर्शाता है. इसके महत्व को और इसकी कम होती आबादी को देखते हुए राष्ट्रीय मिथुन अनुसंधान केंद्र की स्थापना सन् 1988 में नागालैंड में की गई थी.
पत्तियां खाना ज्यादा करता है पसंद
संस्थान का मुख्य उद्देश्य मिथुन का मांस उसके दुग्ध उत्पादन में सुधार लाना तथा अन्य राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से मिथुन संख्या बढ़ाने और उसके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी एकत्रित करना है. मिथुन की चार उपजातियां, अरुणाचल, नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम की पहचान की गई है. शारीरिक गुण के आधार पर इन सभी उपजातियां के लक्षण चिन्हित किए गए हैं. मिथुन जमीन पर उगी घांस खाने के बजाय पेड़ों की पत्तियों को खाना ज्यादा पसंद करता है. इसे सघन प्रणाली में पारंपरिक तरीके से उत्पादित चारों और दाने को भी खिलाया जाता है. अब तक लगभग 200 पारंपरिक परंपरा का स्थलीय खाद्य पदार्थों को पोशाक मूल्य के लिए मूल्यांकन किया जा चुका है.
इसे नमक जरूर खिलाया जाता है
क्योंकि पर्वती क्षेत्र के आहार में खनिज की कमी होती है. इसलिए मिथुन में नमक की लालसा होना आम व्यवहार है. इसलिए मिथुन को जो लोग पलते हैं. उन्हें नमक जरूर खिलाते हैं. जो मिथुन और मिथुन पालकों के बीच विशेष संबंध विकसित करने में सहायक होता है. मिथुन के सींघ से बने हुए वाद्ययंत्रों से निकली हुई आवाज इस जानवर को आकर्षित करती है और ये कहीं भी होते हैं तो अपने पाल के पास आ जाते हैं. वहीं राष्ट्रीय मिथुन अनुसंधान केंद्र द्वारा क्षेत्र विशेष के लिए विशेष खनिज मिश्रण विकसित किया है. जो खनिजों की कमी से होने वाली समस्याओं को दूर करता है. मिथुन अत्यंत कम लागत पर सघन प्रणाली पर पाले जा रहे हैं. पिछले दो पशु गणना अभिलेखों के अवलोकन से पता चला है कि मिथुन की संख्या बढ़ी है.
ये एक बड़ा चैलेंज है
मिथुन को पूर्व से सघन प्रणाली में पालने का भी प्रयास किया गया है और कम लागत में मिलने वाले औद्योगिक इकाइयों उपचर जैसे फलों के गूदे आदि का प्रयोग करके मिथुन के पालन को सघन प्रणाली में विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है. इसके अलावा स्थानीय घासो और संतरों के छिलके व गुदों से खाद्य सामग्री बनाई गई है. वहीं मिथुन से से वीर्य प्राप्त करना एक बड़ी समस्या है. इस समस्या को हल करने के लिए संस्थान ने एक विधि विकसित की है. जिसमें गाय के मूत्र इकट्ठा कर संरक्षित किया जाता है और फिर सांड को आकर्षित कर उससे वीर्य प्राप्त किया जाता है. गौरतलब है कि संस्थान के मिथुन फॉर्म में सााल 2006 में कृत्रिम गर्भाधान के माध्यम से पहले बच्चे को प्राप्त किया गया था.
Leave a comment