नई दिल्ली. पिछले कुछ वर्षों में भारत में पिजड़ा मीन पालन (केज कल्चर), रिसर्कुलेटरी एक्वाकल्चर सिस्टम (आरएएस) और बायोफ्लाक वजूद में आये हैं. जो हाईटेक हैं और नीली क्रांति के मिशन को साकार करने में इनका अहम योगदान है. पिजड़ा मीन पालन में जलाशयों में फ्लोट और सिंकर/ऐन्कर की मदद से कई पिजड़े पानी की सतह पर तैरते हैं. जिसमें अपने आप मछलियां पलती हैं. उत्तर प्रदेश के रिहन्द जलाशय और झांसी के बड़वार जलाशय में इस तकनीक के पायलट प्रोजेक्ट पर काम किया गया था और अब यह तकनीक कई जलाशयों में अपनायी जा रही है.
आमतौर पर 6×4×4 मीटर के 56 पिजड़ों में पयासी (पंजेशियस) मछलियां औसतन प्रति पिजड़ा पांच टन उत्पादित की गयीं हैं. यह एक बड़ी उपलब्धि है. क्योंकि एक हेक्टेयर के तालाब से उन्नत विधि अपनाने पर उत्पादन का यह स्तर मिलता है. इसी तरह बढ़ते जलसंकट को दृष्टिगत कर आरएएस सिस्टम को बढ़ावा दिया जा रहा है. जिसमें पानी के पुनर्चक्रण से सीमित इनडोर स्थल में सीमेंट या सर्कुलर टैंक में बड़ी मात्रा में मछली उत्पादित की जाती है. एक्सपर्ट कहते हैं कि अगर इस तरह से अगर मछली की खेती की जाए तो कम पानी में मछली उत्पादित की जा सकती है और किसानों को इसका फायदा भी होगा.
क्या है बायोफ्लोक सिस्टम
कई रिपोर्ट के मुताबिक अभी हाल ही में बायोफ्लाक सिस्टम भी प्रचलित हुआ है. इस नए सिस्टम के तहत, जिसमें प्रोबायोटिक बैक्टीरिया के जरिये शैवालों और जल के व्यर्थों को उपयोगी मछली आहार में बदला जाता है. इसमें बाहर से पूरक आहार की खपत कम करके कम लागत में अच्छा मुनाफा कमाया जा रहा है लेकिन इस तकनीक के लिये बिजली हमेशा उपलब्ध रहना जरूरी होती है. इसलिए ये थोड़ा मुश्किल है. बताते चलें कि नीली क्रान्ति इंसानों के पोषण की दिशा में एक वरदान बनने की दिशा में अग्रसर है.
सबसे उपयुक्त है धान का खेत
एक्सपर्ट कहते हैं कि इस तरह के मछली पालन में मछली के साथ धान की खेती सर्वाधिक उपयुक्त होती है. दरअसल, धान की फसल बहुत पानी की जरूरत होती है और इसकी खेती पानी के बिना नहीं की जा सकती है. जबकि धान का खेत हमेशा ही पानी से भरा रहता है इसलिये इसमें धान के साथ कम खर्च में मछली पालन किया जाता है. धान की जलमग्न प्रजाति इसमें अपनायी जाती है. इससे मछली भी पल जाती है और धान की फसल भी तैयार हो जाती है. ऐसे में किसानों को इससे डबल मुनाफा मिल जाएगा.
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