नई दिल्ली. पशुओं को जब बीमारी होती है तो उसका सीधा असर दूध उत्पादन पर पड़ता है. दूध उत्पादन कम होने की वजह से पशुपालकों को नुकसान होता है. वहीं बीमार पशु की सेहत में भी गिरावट आती है और पशुओं के इलाज में पशुपालक को अतिरिक्त पैसा लगाना पड़ता है. इसके चलते पशुपालन में होने वाला फायदा नुकसान में तब्दील हो जाता है. एक्सपर्ट कहते हैं कि पशुओं को बीमारी से बचाना पशुपालन का सबसे अहम काम है. हालांकि इसके लिए जरूरी है कि पशुपालकों को पशुओं की बीमारी के बारे में जानकारी रहे. अगर जानकारी होगी तो फिर पशुओं को बीमार होने से बचाया जा सकता है.
यहां हम बात करने जा रहे हैं पशुओं के कीटोसिस बीमारी के बारे में. ये गायों और भैंसों में होने वाला एक डाइजेशन विकार है. कई बार पशु की ऊर्जा की जरूरत, उसके सेवन से ज़्यादा हो जाती है तब ये बीमारी हो जाती है. एनिमल एक्सपर्ट का कहना है कि इस बीमारी में पशु के खून में कीटोन बॉडी (एसीटोन, एसीटोएसिटिक एसिड, और बीटा-हाइड्रॉक्सीब्यूटिरिक एसिड) का स्तर बढ़ जाता है. वहीं पशु का रक्त शर्करा का स्तर कम होने लगता है. पशुओं का वजन तेजी से गिरता चला जाता है.
क्या हैं इस बीमारी के लक्षण
- एक्सपर्ट के मुताबिक यह रोग दुधारू पशुओं में ज्यादा होता है, जो गाय—भैंस आमतौर पर दूध देने के बाद शुरुआत के 2-3 महीनों में होने की कंडीशन में होती हैं.
- शुरुआती चरण के लक्षण भूख में कमी, दूध में कमी, सुस्त पड़ना और गोबर भी लसदार व चिपचिपा होता है.
- जैसे-जैसे ये रोग बढ़ता है शारीरिक भार में गिरावट होती है. पाइका हो जाता है, जिसमें पशु कड़ी चीजों/वस्तुओं को खाने का प्रयास करता है. कूबड़ पीठ, इत्यादि लक्षण दिखाई देते हैं. कुछ पशु तो उत्तेजित और आक्रामक भी हो जाते हैं.
- वहीं मांद व शरीर को चाटना, सिर और नाक को दबाना, बार-बार दांत कटकटाना, आवाज करना इत्यादि लक्षण दिखते हैं. चाल में अनियमितता के साथ-साथ लड़खड़ाना, वृत्त में घूमना और गिरना इत्यादि लक्षण भी दिखते हैं.
- एक बार गाय में अगर ऐसी परिस्थिति पैदा हो गई तो फिर से होने की संभावना बढ़ जाती है.
कोटोसिस की रोकथाम एवं उपचार
- दुग्धकाल की पिछली अवस्था में और सूखी हुई गाय में (गाय जब दूध नहीं दे रही होती है) उचित आहार देना चाहिए.
- ब्याने के समय शारीरिक स्कोर 5 के मानक अनुसार 3.5 होना चाहिए.
- कुछ बीमारियां जैसे कि जेर नहीं गिरना (ROP), गर्भाशय में सूजन (मेट्राइटिस), थनैला, पर्यावरणीय तनाव आदि का प्रबंधन सही से करना चाहिए.
- चारे में अचानक बदलाव नहीं करना चहिए, अत्यधिक चारा नहीं देना चाहिए.
- ऊपर बताए गए लक्षण दिखने पर पशु चिकित्सक से संपर्क करें.
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