नई दिल्ली. पशुओं में मुंहपका बीमार पशु के सीधे सम्पर्क में आने पानी, घास, दाना, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा से तथा लोगों के आवागमन से फैलती है. इस बीमारी के वायरस बीमार पशु की लार, मुंह, में फफोलों में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं. वायरस खुले में घास, चारा तथा फर्श पर चार महीनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन गर्मी के मौसम में ये बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं. वायरस जुबान, मुंह, आंत, थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के खून में पहुंचते हैं. लगभग पांच दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं.
रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डिग्री फारेनहायट तक बुखार हो जाता है. वह खाना-पीना व जुगाली करना बन्द कर देता है. दूध का उत्पादन गिर जाता है. मुंह से लार बहने लगती है तथा मुंह हिलाने पर चपचप की आवाज आती है इसी कारण इसे चपका रोग भी कहते हैं. तेज बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर, गालों, जुबान, होंठ, तालू व मसूड़ों के अंदर, खुरों के बीच तथा कभी-कभी थनों व अयन पर छाले पड़ जाते हैं. ये छाले फटने के बाद जख्म का रूप ले लेते हैं जिससे पशु को बहुत दर्द होने लगता है. वहीं मुंह में जख्म व दर्द के कारण पशु खाना-पीना बन्द कर देता है. जिससे वह बहुत कमजोर हो जाता है. गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है. नवजात बच्छे और बच्छियां बिना किसी लक्षण दिखाए मर जाती हैं.
क्या है इलाज
इस रोग का कोई निश्चित उपचार नहीं है लेकिन बीमारी की गम्भीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है. रोगी पशु में सेकेंडरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एन्टीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं. मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी या पोटाश के पानी से धोते हैं. मुंह में बोरो-गिलिसरीन तथा खुरों में किसी एन्टीएप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है.
बीमारी से बचाव कैसे करें
(1) इस बीमारी से बचाव के लिए पशुओं को पोलीवेलेंट वेक्सीन के वर्ष में दो बार टीके जरूर लगवाने चाहिए. बच्छे या बच्छियों में पहला टीका 1 माह की उम्र में, दूसरा तीसरे माह की आयु तथा तीसरा 6 माह की उम्र में और उसके बाद चार्ट के मुताबिक वैक्सीन लगवानी चाहिए.
(2) बीमारी हो जाने पर रोग ग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए.
(3) बीमार पशुओं की देख-भाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए.
(4) बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा देना चाहिए.
(5) रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए.
(6) पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए.
(7) इस बीमारी से मरे पशु के शव को खुला न छोड़कर गाड़ देना चाहिए.
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