नई दिल्ली. भारत में बकरियों की कई नस्लें पाई जाती हैं. इन्हें कैसे पाला जाता है, इसका तरीका पना होना चाहिए. इससे पहले ये जान लें कि बकरी की नस्लों में नस्लें गद्दी, चियांगथोंगी व चेगू हैं. ये नस्लें उत्तरी ठंडा क्षेत्र में पाली जाती हैं. ये नस्लें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्र में लोग पालते हैं. इस क्षेत्र की बकरियां रेशा (पश्मीना) व मांस उत्पादक होती हैं. वहीं उत्तर-पश्चिमी सूखे क्षेत्र के तहत राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात व मध्य प्रदेश के सूखे व कम सूखे क्षेत्र आते हैं. इस क्षेत्र की मुख्य नस्लें सिरोही, मारवाड़ी, जखराना, बीटल, बरबरी, जमुनापारी, मेहसाना, गोहिलवाड़ी, झालावाड़ी, कच्छी व सूरती हैं। ये नस्लें दूध व माँस उत्पादन में अच्छी होती हैं.
वहीं दक्षिणी क्षेत्र इसके अन्तर्गत महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक तथा तमिलनाडु प्रदेशों के भाग आते हैं. इस क्षेत्र की नस्लें मुख्यतः संगमनेरी, उस्मानावादी व मालावारी हैं. ये नस्लें मुख्यतः मांस उत्पादक होती हैं. जबकि पूर्वोत्तर क्षेत्र इसके अन्तर्गत बिहार, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा असम और देश के पूर्वोत्तर राज्य आते हैं. यहां पर बकरियों की दो नस्लें गंजम और बंगाल है. बंगाल नस्ल जनन क्षमता व मांस उत्पादन में विश्व प्रसिद्ध हैं. अगर इन बकरियों को पालने के मेथड के बारे में जानकारी होनी चाहिए.
घर पर रखकर होता है बकरी पालन
ये उन क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है जहां बकरियों के चराने के लिये पर्याप्त चरागाह उपलब्ध नहीं हैं. इस पद्धति में बकरियों को फार्म या घर पर रखकर ही उनकी चारे दाने की सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है. इसे जीरो ग्रेजिंग पद्धति भी कहते हैं. अन्य मेथड की तुलना में इस तरीके के अनुसार बकरी पालन करने पर बकरियों से उनकी आनुवंशिक क्षमता के अनुरूप उत्पादन लिया जाना संभव है.
बकरियों को दिया जाता है सप्लीमेंट
अर्द्धसघन पद्धति बकरी पालन की यह मेथड उन परिस्थितियों के लिये अनुकूल है, जब चरागाह की सुविधा केवल सीमित क्षेत्रों में उपलब्ध हो. साथ ही उनमें चारे की उपलब्धता भी आवश्यकता से कम हो. ऐसी दशा में चरागाह का उपयोग बकरियों को सीमित समय के लिये चराने के लिये किया जाता है जिससे पूरे वर्ष चरने की सुविधा बनी रहे. इस तरह बकरियों के आहार की पूर्ति सीमित चराई के साथ-साथ उनको फार्म/घर पर पूरक आहार के रूप में आवश्यकतानुसार दाना तथा सूखा चारा उपलब्ध कराकर पूरी की जाती है. इस मेथड में बकरियों के उत्पादन का स्तर चरागाह में उपलब्ध चारे तथा पूरक आहार की मात्रा एवं गुणवत्ता पर निर्भर करती है.
मैनेजमेंट आसान पर प्रोडक्शन होता है कम
तीसरे मेथेड में बकरियों को केवल चराकर ही पाला जा सकता है. यदि चरागाहा अच्छी गुणवत्ता वाले हैं तो बकरियों को आवास पर अलग से चारा व दाने की आवश्यकता नहीं होती है. उनकी जरूरतें चरागाहों से ही पूरी हो जाती हैं. इस मेथड में प्रबन्धन तो आसान होता है लेकिन यह देखा गया है कि बकरियों का उत्पादन उस अनुरूप में नहीं हो पाता है जितनी बकरियों की क्वालिटी बकरियों मे होती है.
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