नई दिल्ली. अगर घर और आंगन में मुर्गियों को पाला जाए तो इससे कमाई की जा सकती है. हालांकि ये फायदेमंद तभी है जब इससे जुड़ी समस्याओं का हल निकाला जाए. ये भी कहा जा सकता है कि इन समस्याओं को बारे में लोगों को पता हो. अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर घर और आंगन में मुर्गियों को पालने से उतना ज्यादा फायदा नहीं मिलेगा, जितना मिलना चाहिए. एक्सपर्ट का कहना है कि भारत में ग्रामीण परिवेश में महिलाओं का पशुपालन गतिविधियों में 74 प्रतिशत योगदान रहता है. उदाहरण के तौर पर अगर छत्तीसगढ़ को ले लिया जाए तो यहां महिलाओं का योगदान ज्यादा है.
एक्सपर्ट कहते हैं कि जागरूकता के अभाव में मुर्गियों की बिक्री और उससे होने वाली इनकम से आदिवासी महिलायें आमतौर पर अनजान होती हैं. मौजूदा दौर में अशिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण मुर्गियों की मौत भी हो जाती है. इसके चलते भी होने वाला फायदा नुकसान में तब्दील हो जाता है.
सेलेक्शन में हो जाती है गड़बड़ी
इतना जरूर है कि घरेलू मुर्गियां घूम-घूम कर जितना भी आहार जुटाएं, वह उनके अंडा और मीट प्रोडक्शन के लिए जरूरी नहीं होता है. यही वजह है कि घरेलू मुगियों के वजन में बढ़ोत्तरी फार्म मुर्गियों की अपेक्षा कम होती है. देसी मुर्गियों में एक किलो वजन प्राप्त करने में लगभग 6 माह का समय लग जाता है. चूजों को ठंड, बरसात, कई प्रकार की बीमारियों, चील-कौओं, कुत्ते, भेड़िये आदि से सुरक्षित न रख पाने के कारण ग्रामीण परिवेश में, चूजों में मृत्यु दर बहुत अधिक पाई जाती है. आमतौर पर यह देखा गया है कि पशुपालक जिन मुर्गियों को प्रजनन के लिये इस्तेमाल करें और किसे बेचें इसका सेलेक्शन ठीक से नहीं कर पाते. जिससे कई बार अच्छी कुडुक मुर्गी या ज्यादा अंडे देने योग्य मुर्गियों को बेचा या खाया जाता है. वहीं अयोग्य मुर्गी चूजे पैदा करने के लिये रख ली जाती है.
मुर्गी पालन को नहीं मानते व्यवसाय
इसी तरह अंडे सेने वाली मुर्गियों हेतु अलग से व्यवस्था नहीं की जाती. जिससे कुछ भ्रूण-रहित अंडों से चूजे नहीं निकल पाते हैं. व्यवसायिक सोच न होने के कारण ग्रामीण मुर्गी पालक अपनी मुर्गियों पर लगभग कोई खर्च नहीं करते और न ही उससे हुए फायदे का कोई हिसाब रखते हैं. चूजे, दाना, हेल्थ सर्विस उपलब्ध न होना, प्रशिक्षण एवं विस्तार कार्यक्रमों की कमी एवं स्थाई बाजार के अभाव के कारण स्थानीय आदिवासी अभी भी मुर्गी पालन को एक व्यवसाय के रूप में नहीं मानते हैं. देसी मुर्गी पालन से बस्तर एवं सरगुजा जैसे इलाकों में बायो सिक्योरिटी का कंजर्वेशन और प्रमोशन किया जाना संभव हो सकता है. यह एक ऐसे रास्ता है, जो मुर्गी पालने वालों को फायदा पहुंचा सकता है.
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