नई दिल्ली. थीलेरियोसिस रोग गाय-भैंस में मुख्यत: बीलेरिया एनूलाटा एवं मेड़-बकरी में थौलेरिया ओविस नामक रक्त में पाए जाने वाले परजीवी से होता है. कम उम्र के बछड़े इस रोग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते है. इस रोग का प्रकोप गर्मी और बरसात के मौसम में अधिक होता है, क्योंकि इस मौसम में रोग संचरण करने वाली किलनियों की संख्या में वृद्धि अधिक हो जाती है, क्योंकि उच्च तापमान एवं आर्द्रता किलनियों की वृद्धि के लिए अच्छा वातावरण प्रदान करते हैं. इसलिए समय रहते इस रोग का उचित उपचार होना बेहद जरूरी है. अन्यथा 90 प्रतिशत पशुओं की मृत्यु हो जाती है. इस रोग का फैलाव गाय-भैंसों व बछड़ों में खून चूसने वाली किलनी हाइलोमा एनालोटिकम द्वारा होता है.
थेलेरियोसिस बेहद खतरनाक मवेशी रोग है, जो किलनी से फैलता है, इससे एनीमिया हो जाता है. कभी-कभी ये इतना खतरनाक हो जाता है कि पशु की मृत्यु तक हो जाती है. खासकर बछड़ों और गायों में ब्याने के दौरान. अगर पशुओं में पीली आंखें, सुस्ती और दुग्ध उत्पादन में कमी हो जाए तो ये एनीमिया के लक्षण हो सकते हैं. विशेषेज्ञ बताते हैं कि इस रोग का प्रकोप गर्मी और बरसात के मौसम में अधिक होता है, क्योंकि इस मौसम में रोग संचरण करने वाली किलनियों की संख्या में वृद्धि अधिक हो जाती है. राजुवास की सहायक प्राध्यापक डॉ. दीपिका धूड़िया द्वारा इस रोग केबारे में सावधानियां बरतने को कहा है और इसके लक्षण और उपाय भी बताए हैं.
थीलेरियोसिस रोग के लक्षण:
–इस रोग से प्रभावित पशु में लगातार सामान्य की तुलना में बहुत ज्यादा बुखार रहता है.
–स्केपूला के बगल वाले लिम्फ नोड (लसिका ग्रंथि) में सूजन आ जाती है जो स्पष्ट रूप से दिखती है.
–हृदय गति एवं श्वसन गति बढ़ जाती है. नाक से पानी, आंखो से स्त्राव एवं खासी आने लगती है.
–रोगग्रस्त पशु के शरीर में खून की कमी हो जाती है.
–भूख नहीं लगने के कारण पशु खाना-पीना कम कर देता हैं, जिसकी वजह से पशु अत्यधिक कमजोर हो जाता है.
– दुधारू पशु के दुग्ध उत्पादन में गिरावट होने लगती है.
–कुछ समय पश्चात्त बुखार कम होने के साथ-साथ पशु में पीलिया के लक्षण दिखाई देने लगते हैं, जिसकी वजह से पशु का मूत्र भी पीला हो जाता है.
– कभी-कभी संक्रमित पशु को खूनी दस्त भी होने लगतें हैं.
–उचित उपचार न मिलने पर संक्रमित पशु की मृत्यु भी हो जाती है एवं मृत्यु दर गर्भवती गायों में सबसे अधिक होती है.
रोग की पहचान एवं जांच:
–इस रोग की पहचान प्रमुख लक्षणों (स्केपूला के बगल वाले लिम्फ नोड में सूजन) के आधार पर की जाती है.
–इसके अलावा आसपास के क्षेत्र में किलनियों का पाया जाना भी इस रोग का कारण है.
–जांच के लिए खून के पतले क्लीयर एवं लिम्फ नोड्स व यकृत की बायोप्सी की जानी चाहिए जिससे परजीवी की उपस्थिति का पत्ता लगाया जा सके.
–इसके अलावा पीसीआर एवं सीएफटी द्वारा भी इस रोग की जांच की जा सकती है.
रोग का उपचार:
–थीलेरियोसिस रोग के इलाज के लिए बुपास्वाकियोनोन दवा का प्रयोग
पशुचिकित्सक की देखरेख में करना चाहिए.
–एनीमिया की स्थिति में आयरन के टीके लगाना उचित रहेगा.
–पशु के आवास स्थल को चूने एवं कीटनाशक से धोना चाहिए तथा आवास स्थल की चूने से पुताई करनी चाहिए.
–इस रोग से बचाव के लिए रक्षावैक टी टीका (3 मिली) 2 वर्ष के ऊपर के गाय व गाय के बछड़ों के गर्दन में त्वचा के नीचे लगवाना चाहिए और इस रोग की पूर्ण रोकथाम के लिए प्रतिवर्ष इस टीके को लगवाना चाहिए. यह टीका ब्याहने वाली गायों को नहीं लगाते हैं.
–किलनियों के नियत्रण के लिए 10 प्रतिशत साइपरमैयरीन स्प्रे से पशु के शरीर पर छिड़काव करना चाहिए तथा आइवरमैक्टीन इंजेक्शन 0.2 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम की दर से पशु को दिया जाना चाहिए.
नोट ये सभी जानकारी वेटरनरी कॉलेज, बीकानेर प्रसार शिक्षा निदेशालय, राजुवास की सहायक प्राध्यापक डॉ. दीपिका धूड़िया द्वारा दी गई है.
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