नई दिल्ली. मछलियों में वायरस जनित रोग भी होते हैं. जिसे एपीजुएटिक अलसरेटिव सिण्ड्रोम (ईयूएस) कहा जाता है. गत 22 वर्षों से यह रोग महामारी के रूप में भारत में ये अपने पैर पसारे हुए है. सबसे पहले ये बीमारी 1983 से त्रिपुरा राज्य में आई. फिर वहां से पूरे भारत में फैल गई. बारिश के ठीक बाद सबसे पहले तल में रहने वाली संवल, मांगूर, सिंधी बॉम, सिंघाड़, कटरंग तथा स्थानीय छोटी छिलके वाली मछलियां इस रोग से प्रभावित होती हैं. कुछ ही समय में पालने वाली कार्प मछलियां जैसे- कतला, रोहू तथा मिरगल मछलियां भी इस रोग की चपेट में आ जाती है.
इस महामारी के प्रारंभ में मछली की त्वचा पर जगह जगह खून के धब्बे उभरते हैं जो बाद मे चोट के गहरे धावों में तबदील हो जाते हैं. तथा उनसे खून निकलने लगता है. चरम अवस्था में हरे लाल धब्बे बढ़ते हुए पूरे शरीर पर यहां वहां कर गहरे अलसर में बदलत जाता है. विषेष रूप से सिर तथा पूंछ के पास वाले भाग पर, पंख तथा पूंछ गल जाती है. वहीं आखिरी में मछलियां मर कर किनारे दिखाई देने लगती हैं.
यहां पढ़ें इस बीमारी का कारण
यह रोग पोखर, जलाषय तथा नदी में रहने वाली मछलियों में फैल सकता है, लेकिन इस रोग का प्रकोप खेती की जमीन के समीपवर्ती तालाबों में ज्यादा देखा गया है. जहां बारिश के पानी में खाद, कीटनाषक इत्यादि घुलकर तालाब में प्रवेश कर जाते हैं. आमतौर पर कीटनाशक के प्रभाव से मछली की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है. पानी मे प्रदूषण अधिक होने पर अमोनिया का प्रभाव बढ़ जाता है. तथा पानी में आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है. यह परिस्थिति इस रोग के बैक्टिरिया के लिए अनुकूल होती है, जिससे ये तेजी से बढ़ते हैं. शुरू में त्वचा पर धब्बे के रूप में विजिबल होते हैं.
बचाव के क्या हैं उपाय
इस रोग के फैलने में अनेक कारक अपना योगदान देते है, जिसमें वायरस बैक्टिरिया तथा फॅगस (फफूंद) प्रमुख है. पहले रोगग्रस्त प्रजनकों जो बाद में भले ही स्वस्थ्य हो जाते हैं ऐसे प्रजनकों से मत्स्य बीज उत्पादित नहीं करना चाहिए. तालाब के किनारे यदि कृषि भूमि है तो तालाब के चारों ओर बाँध बना देना चाहिये, ताकि कृषि भूमि का जल सीधे तालाब में प्रवेष न करें. वर्षा के बाद जल का पी.एच. देखकर या कम से कम 200 किलो चूने का उपयोग करना चाहिए. ठंड की शुरुआत में ऑक्सीजन कम होने पर पम्प, ब्लोवर से पानी में ऑक्सीजन को प्रवाहित करना चाहिए. प्रति एकड़ 5 किलो मोटे दाने वाला नमक डालने से कतला व अन्य मछलियों को वर्षा पश्चात् मछली में अन्य होने वाले रोग से सुरक्षा की जा सकती है.
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