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Fisheries: मछलियों की ये पांच बीमारियां हैं बेहद घातक, यहां जानिए इनके लक्षण और बचाव के तरीके

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प्रतीकात्मक तस्वीर.

नई दिल्ली. खेती किसानी के अलावा पशुपालन और मछली पालन में किसान हाथ आजमा रहे हैं. मछली पालन करके भी अच्छी खासी आमदनी किसानों को हो रही है. यही वजह है कि सरकार भी मछली पालन को बढ़ावा देने के लिए काम करती रहती है. मछली किसान को मछली पालन करने के लिए इससे जुड़ी तमाम जानकारी तो होना ही चाहिए, साथ ही बीमारियों, उसके लक्षण और इलाज के बारे में भी मछली पालकों को पता होना चाहिए. वैसे तो मछली में पाई जाने वाली बीमारियों को चार हिस्सों में बांटा गया है.

उसमें से एक हिस्सा परजीवी जनित रोग कहा जाता है. इस आर्टिकल में आपको इससे जुड़ी पांच बीमारियों के बारे में जानकारी दी जा रही है. एक्सपर्ट के मुताबिक इंटरनल पैरासाइट मछली के इंटरनल अंगों जैसे शरीर के, खून की नली आदि में रोग फैलाते हैं तो जबकि बाहरी पैरासाइट मछली के गलफड़े आदि को रोगग्रस्त कर देते हैं.

ट्राइकोडिनोसिस: यह बीमारी ट्राईकोडीना नाम के प्रोटोजोआ परजीवी से होती है. जो मछली के गलफड़ों व शरीर के ऊपरी सतह पर रहता है. संक्रमित मछली में शिथिलता, भार में कमी और मरने की अवस्थाा हो जाती है. गलफड़ों से अधिक श्लेषमा स्रावित होने से सांस लेने में कठिनाई होती है. इसके उपचार की बात की जाए तो 1.5 फीसदी सामान्य नमक का घोल, 25 पीपीएम फॉर्मेलिन और 10 पीपीएम कॉपरसल्फेट नीला थोथा का घोल में मछलियों को 1.2 मिनट डूबा कर रखा जाता है.

माइक्रो एवं मिक्सोस्पोरीडिएसिस: इस बीमारी के लक्षण फिंगर अवस्था में ज्यादा होता है. यह कोशिकाओं में फिर​बीलेटिव कृमिकोष बना देते हैं. तथा टिश्यू को भारी नुकसान पहुंचाते हैं. इस रोग के मछली के गलफड़ों और चमड़ों काो संक्रमित करता है. उपचार की बात की जाए तो रोकथाम के लिए कोई औषधि कोई दवा नहीं है. यह बीमारी ग्रसित मछली को बाहर निकाल देना चाहिए. बीमारी से बचाने के लिए मत्स्य बीज संचयन के पहले चूना, ब्लीचिंग पाउडर से पानी को रोग मुक्त किया जा सकता है.

सफेद धब्बेदार रोग: सफेद दफेदार रोग एक्थियोथिरिस प्रोटोजोन की ओर से होता है. इसमें मछली की स्किन पंख व गर्लफड़े पर छोटे सफेद धब्बे हो जाते हैं. यह टिश्यू में रहकर टिश्यू को खत्म कर देते हैं. इलाज की बात की जाए तो एक पीपीएम मेलाकाइट ग्रीन, 50 पीपीएम फॉर्मेलीन में 1.2 मिनट तक मछली को डुबाते हैं. पोखरे में 15 से 25 पीपीएम फॉर्मेलीन हर दूसरे दिन डालने से बीमारी खत्म हो जाती.

डेक्टाइलो गाइरोसिस, व गाइरो डेक्टाइलोसिस: इस बीमारी का लक्षण कार्प एवं हिंसात्मक मछलियों के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है. इसमें मछली के गलफड़े संक्रमित हो जाते हैं. इससे शरीर बदरंग और शरीर में वृद्धि नहीं होती है. भर में कमी हो जाती है. यह स्किन पर संक्रमित भाग की कोशिकाओं में जख्म बना देते हैं. जिससे शल्को का गिरना, अधिक श्लेषक और स्किन बदरंग हो जाती है. उपचार की बात की जाए तो एक पीपीएम परमेगनेट के घोल में 30 मिनट तक रखते हैं. 1.2000 ऐसिटिक के घोल को दो प्रतिशत घोल नमक बारी-बारी से 2 मिनट के लिए डुबोएं. तालाब मेलेथियारन 0.25 पम 7 दिन के अंदर में तीन बार छिड़कें.

आरगुलाौसिस: यह रोग आरगुलस परजीवी की वजह से होता है. मछली की स्किन पर गहरे घाव कर देता है. जिससे त्वचा पर फफूंद व जीवाणु संक्रमण कर देते हैं. मछलियां मरने लगती हैं. 500 पीपीएम पोटैशियम परमेगनेट के घोल में 1 मिनट के लिए डुबाया जाता है. 0.25 पीपीएम में मेलाथियारन को 1.2 सप्ताह के अंतराल में तीन बार प्रयोग करें.

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