नई दिल्ली. चरवाहे सिर्फ़ पहाड़ों में ही नहीं रहते हैं. वे पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में भी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं. धंगर महाराष्ट्र का एक जाना-माना चरवाहा समुदाय है. बीसवीं सदी की शुरुआत में इस समुदाय की आबादी लगभग 4,67,000 थी. उनमें से ज्यादातर गड़रिये या चरवाहे थे हालांकि कुछ लोग कम्बल और चादरें भी बनाते हैं. जबकि कुछ भैंस पालते हैं. धंगर गड़रिये बरसात के दिनों में महाराष्ट्र के मध्य पठारों में रहते हैं. यह एक अर्ध-शुष्क इलाका है जहां बारिश बहुत कम होती है और मिट्टी भी खास उपजाऊ नहीं है. चारों तरफ़ सिर्फ़ कंटीली झाड़ियाँ होती हैं. बाजरे जैसी सूखी फ़सलों के अलावा यहां और कुछ नहीं उगता है.
मॉनसून में यह पट्टी धंगरों के जानवरों के लिए एक विशाल चरागाह बन जाती है. अक्तूबर के आसपास धंगर बाजरे की कटाई करते थे और चरागाहों की तलाश में पश्चिम की तरफ़ चल पड़ते हैं. करीब महीने भर पैदल चलने के बाद वे अपने रेवड़ों के साथ कोंकण के इलाके में जाकर डेरा डाल देते हैं. अच्छी बारिश और उपजाऊ मिट्टी की बदौलत इस इलाके में खेती खूब होती है. कोंकणी किसान भी इन चरवाहों का दिल खोलकर स्वागत करते हैं. जिस समय धंगर कोंकण पहुंचते थे उसी समय कोंकण के किसानों को खरीफ की फसल काट कर अपने खेतों को रबी की फसल के लिए दोबारा उपजाऊ बनाना होता है.
फिर लौट जाते हैं चरवाहे
धंगरों के मवेशी खरीफ़ की कटाई के बाद खेतों में बची रह गई ठूंठों को खाते हैं और उनके गोबर से खेतों को खाद मिल जाती थी. कोंकणी किसान धंगरों को चावल भी देते थे. जिन्हें वे वापस अपने पठारी इलाके में ले जाते थे. क्योंकि वहाँ इस तरह के अनाज बहुत कम होते हैं. मॉनसून की बारिश शुरू होते ही धंगर कोंकण और तटीय इलाके छोड़कर सूखे पठारों की तरफ़ लौट जाते थे. क्योंकि भेड़ें गीले मॉनसूनी हालात को बर्दाश्त नहीं कर पातीं. कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी सूखे मध्य पठार घास और पत्थरों से अटे पड़े थे. इनमें मवेशियों, भेड़-बकरियों और गड़रियों का ही बसेरा रहता है.
भैंस पालते हैं इस समुदाय के लोग
यहां गोल्ला समुदाय के लोग गाय-भैंस पालते हैं. जबकि कुरुमा और कुरुबा समुदाय भेड़-बकरियाँ पालते हैं और हाथ के बुने कम्बल बेचते हैं. ये लोग जंगलों और छोटे-छोटे खेतों के आसपास रहते थे। वे अपने जानवरों की देखभाल के साथ-साथ कई दूसरे काम-धंधे भी करते थे. पहाड़ी चरवाहों के विपरीत यहाँ के चरवाहों का एक स्थान से दूसरे स्थान जाना सर्दी-गर्मी से तय नहीं होता है. ये लोग बरसात और सूखे मौसम के हिसाब से अपनी जगह बदलते थे. सूखे महीनों में वे तटीय इलाकों की तरफ़ चले जाते थे जबकि बरसात शुरू होने पर वापस चल देते हैं. मॉनसून के दिनों में तटीय इलाकों में जिस तरह के गीले दलदली हालात पैदा हो जाते थे वे सिर्फ़ भैंसों को ही रास आ सकते हैं.
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